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बारह वर्षका तप
__चौथे नियमसे मालूम होता है कि इसके पहले वे पात्रमें भोजन लेते थे जैसा कि दिगम्बर सम्प्रदायमें ग्यारहवीं प्रतिमाधारी (क्षुल्लक) लिया करते हैं। पीछेसे पात्रमें भोजन लेना बन्द किया और हाथमें ही भाजन लेने लगे । दिगम्बर सम्प्रदायके मुनि इसी प्रकार आहार लेते हैं । परन्तु इस प्रकारके आहारसे उद्दिष्ट-त्यागका पालन कठिन हो जाता है । महावीर तो उग्र तपस्वी थे इसलिये वे इसका पालन कर सके, परन्तु जब संघ-रचना हो गई तब इसका पालन करना कठिन ही था । इसलिये अनेक पुष्पोंसे भ्रमरके समान अनेक गृहोंसे भिक्षा लेनेका नियम बनाया गया, जो कि आज श्वेताम्बर सम्प्रदायमें प्रचलित है । आहार लेनेकी ये दोनों प्रथायें म० महावीरके समयकी ही मालूम होती हैं। ___ इनमेंसे कुछ नियम ऐसे हैं जो महात्माने अपनी साधकावस्थाके लिये ही बनाये थे; पीछेसे संघके लिये अनुकूल समझकर समस्त संघके लिये बना दिये गये । और कुछ नियम ऐसे भी थे जो संघके लिये अनिवार्य नहीं समझे गये। दूसरा नियम इसी तरहका है। इस तरह जैनधर्मके वर्तमान ढाँचेके बीज हमें म० महावीरके जीवनमें मिलते हैं, यद्यपि सभी बीजोंका मिलना मुश्किल है।
तापसाश्रमसे निकलकर म० महावीर अस्थिक* ग्राम पहुँचे । वहाँके *इस गाँवका दूसरा नाम वर्द्धमान बताया जाता है । काठियाबाड़में बढ़वाण नामका शहर है, जहाँ शूलपाणि यक्षका मंदिर भी है, परन्तु इसका और अस्थिक ग्रामका कोई सम्बन्ध नहीं जान पड़ता। जिस तापसाश्रममें म० महावीरने चौमासा करनेका विचार किया था वह मगधमें ही था। किसी निराकुल स्थानकी खोजमें चौमासेमें भगवान काठियावाड़ तक जायँ यह असम्भव है । मगधसे काठियावाड़ तक जानेमें तो चौमासा ही व्यतीत हो जाता । चौमासेके बाद