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जैनधर्म-मीमांसा
था। फिर भी प्रत्येक मनुष्यको किसी न किसी तरह लोक-सेवा अवश्य करना चाहिये इसलिये उनने विचार किया कि जब तक जीवन है तब तक मन-वचन-काय कुछ न कुछ काम तो करेंगे ही तब उनसे विश्वकल्याणका ही काम क्यों न लिया जाय ? इसलिए जिस अवस्थाको वे स्वयं प्राप्त हुए थे, दूसरोंको भी वही अवस्था प्राप्त कराने के लिये उनने संघ - रचनाका विचार किया और इसके लिये वे धर्मप्रचारक बने ।
किसी को कुछ
कि ये महर्षि
पिछले बारह वर्षोंमें हजारों भद्र जीवांने उनके दर्शन प्राप्त किये थे, परन्तु उनको आश्चर्य होता था कि ये तपस्वी उपदेश क्यों नहीं देते । परन्तु लोगोंको आशा थी कभी न कभी उपदेश देंगे । इसलिए जब उनने उपदेश देनेका विचार किया तब बहुतसे श्रोता एकत्रित हो गये । परन्तु ये सब ग्रामीण श्रोता भक्तिके कारण उपदेश सुननेको एकत्रित हुए थे, समझने के लिए नहीं । इसलिए उनका पहिला व्याख्यान निरर्थक हो गया । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में इस बातको एक आश्चर्यमें गिना है; दिगम्बर सम्प्रदाय में इस घटनाका उल्लेख ही नहीं है ।
पहिले व्याख्यानकी निष्फलतासे उनने विचार किया कि पहिले कुछ विद्वानोंको अपना तत्त्व समझाना चाहिए | उन विद्वानोंसे धर्मप्रचार में बहुत सुविधा होगी । उनने जिन विद्वानोंको अपना तत्त्व समझाया वे उनके मुख्य शिष्य अर्थात् गणधर हुए । इसपर से यह प्रसिद्धि हो गई कि तीर्थंकर बिना गणधरोंके व्याख्यान ही नहीं देते । इस प्रकार यह नियम सभी तीर्थंकरोंके लिये लगा दिया गया ।
विद्वानोंको शिष्य बनानेके विचारसे वे अपापा नगरी में आये ।