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जैनधर्म-मीमांसा
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चरते जंगलमें चले गये । ग्वालाने लौटकर महात्मासे पूछा कि बैल कहाँ हैं ? परन्तु वे ध्यानस्थ थे; कुछ न बोले । इसलिये उसने समझा कि इस मुनिको कुछ नहीं मालूम । वह इधर-उधर बैल ढूँढ़ने लगा। सारी रात्रि बैल खोजता रहा । अन्तमें निराश होकर प्रातःकालके पहले ही वह वहाँ आया जहाँ महात्मा ध्यानस्थ थे । बैल भर-पेट घास चरकर वहाँ आ बैठे थे । ग्वालाने वहाँ आकर बैलोंको देखा तो उसने समझा कि इस मुनिने मेरे बैलोंको कहीं छुपा दिया था और अगर मैं थोड़ी देर यहाँ न आता तो प्रातःकाल होनेपर यह ज़रूर मेरे बैलोंको ले जाता । यह सोचकर वह महात्माको गाली देने लगा और मारनेके लिये दौड़ा । इतनेमें वहाँ एक भला आदमी (शास्त्रोंके शब्दोंमें इन्द्र ) आया । उसने ग्वालाको डाँटकर कहा कि “ अरे मूर्ख, ये तो महातपस्वी हैं, इनने राज्य छोड़ दिया है, ये तेरे बैलोंका क्या करेंगे?" तब वह ग्वाला शान्त हो गया। आगन्तुकने विनयसे कहा कि आज्ञा हो तो मैं आपकी सेवामें रहूँ। महात्माने कहा-" जो दूसरोंकी सेवाके बलपर रहेगा वह न तो जगत्का कल्याण कर सकता है न अपना कल्याण कर सकता है।" तब वह आदमी चला गया ।
दीक्षाके बाद उन्होंने बेला ( दो दिनका उपवास ) किया और उसका पारणा एक बहुल नामके ब्राह्मणके घरपर किया । उस समय तक उनने भोजनके नियम नहीं बनाये थे । वे जिसके घरमें भोजन करते थे उसीके पात्रोंका उपयोग करते थे।
दीक्षाके चार मास बाद महात्मा महावीर मोराक नामके ग्रामके पास आये । वहाँ तापसोंके एक सम्प्रदाय (दुइजतक) का आश्रम