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बारह वर्षका तप
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अनुभव होता गया वैसे वैसे वे नियम बनाते गये और उनका पालन करते गये। इन बारह वर्षके अनुभवोंका सार म० महावीरने जगत्को सुनाया और उस सुपथपर लोगोंको चलाया।
मार्गशीर्ष कृष्णा १० को दीक्षा लेनेके बाद म० महावीरने अपने पास सिर्फ एक वस्त्र रक्खा था। राजकुमार होनेसे वह वस्त्र बहुत मूल्यवान् था । एक गरीब ब्राह्मणने उनको राजपुत्र समझकर भिक्षा माँगी। उन्होंने कहा- अब तो मैं त्यागी हो चुका हूँ, इसलिये तुम्हें क्या दे सकता हूँ, फिर भी मेरे पास जो वस्त्र है इसका आधा भाग तुम ले लो।' ब्राह्मण वस्त्र लेकर एक वस्त्र सुधारनेवालेके पास गया। उसने कहा—' तुम वह आधा वस्त्र और ले आओ तो इसका बहुत मूल्य मिलेगा।' वह ब्राह्मण महात्मा महावीरके पीछे पीछे फिरने लगा। एक बार वह वस्त्र रास्तेके किसी काँटेदार वृक्षसे फँसकर गिर पड़ा और उसे उस ब्राह्मणने उठा लिया। भगवान्ने भी ब्राह्मणको वस्त्रके लिये अपने पीछे आता देखकर तथा वस्त्रको एक झंझट समझकर उसका त्याग कर दिया। फिर उन्होंने जीवन-भर वस्त्र धारण नहीं किया । आज तो उनकी मूर्ति केवल वस्त्रोंसे ही नहीं किन्तु सोने, चाँदी, हीरे आदिके आभूषणोंसे भी सजाई जाती है ! यह कैसी विडम्बना है !
एक बार कूर्मार ग्रामके बाहर महात्मा महावीर कायोत्सर्ग-स्थित थे। वहाँ एक ग्वाला आया, और अपने बैल वहाँपर छोड़कर प्राममें गाय दुहनेके लिये चला गया । ग्वालाके चले जानेसे बैल इधर-उधर चरते
१-यह घटना दिगम्बर-साहित्यमें नहीं है । सम्भव है किसी और कारणसे उन्होंने कपड़ा छोड़ा हो, या प्रारम्भसे ही वे नम रहे हों।