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जैनधर्म-मीमांसा
अर्थ में विवाद है, परन्तु यहाँ अगर यह बात मान ली जाय कि अरिष्टनेमि नाम कोई महापुरुष हुए हैं तो भी इससे जैनधर्मकी प्राचीनता सिद्ध नहीं होती; क्योंकि इससे सिर्फ यही कहा जा सकता है कि ऋषभ, राम, कृष्ण आदिकी तरह यह नाम भी अपना लिया गया है । नेमिनाथका जो चरित्र जैन शास्त्रोंमें मिलता है वह इतना औपन्यासिक, कलाशून्य तथा कृत्रिमतासे भरा हुआ है कि उसपर किसी प्रकार विश्वास नहीं किया जा सकता । खैर, इस चरित्रलोचनकी यहाँ आवश्यकता नहीं है । सीधी बात यह है कि कोई ऐसा नाम जो वेदोंमें भी पाया जाता है अगर किसी जैन - पात्रका भी हो, तो यह जैनधर्मकी प्राचीनता सिद्ध नहीं करता है । नेमिनाथ - सम्बन्धी प्रमाण तो ऋषभदेवसम्बन्धी प्रमाणसे भी अधिक निर्बल हैं ।
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प्राचीनताके विषयमें ' अनन्त जिन' शब्दका भी काफी उल्लेख किया जाता है । यह शब्द उस समय प्रयुक्त हुआ है जब कि म० बुद्ध बुद्धत्व प्राप्त करके धर्मप्रचारके लिये बनारसकी तरफ जा रहे थे । उस समय उपक आजीवकने, म० बुद्ध से पूछा कि तुम्हारा गुरु कौन है ।
बुद्ध बोले- मैं सबको जीतनेवाला, सबको जाननेवाला स्वयं जानकर उपदेश करूँगा । मेरा कोई आचार्य नहीं, मेरे समान कोई नहीं, मैं अर्हत् हूँ, शास्ता हूँ, सम्यक् सम्बुद्ध हूँ, निर्वाण प्राप्त हूँ, धर्मचक्र घुमानेके लिये काशीको जा रहा हूँ ।
उपक बोला- आयुष्मन्, तुम जैसा दावा करते हो उससे तो तुम ' अनन्त जिन' हो सकते हो ।
बुद्ध बोले- मेरे समान प्राणी ही 'जिन' कहलाते हैं । मैंने पापोंको जीता है, इसलिए 'जिन' हूँ ।