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जैनधर्म-मीमांसा
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कालसे भी पहले की है । इसलिये जबतक किसी दूसरेकी मूर्ति वह सिद्ध न हो जाय तब तक उसे शिवकी मूर्ति क्यों न कहा जाय ? के साथ शिवका कितना घनिष्ठ सम्बन्ध है, इसके कहनेकी तो जरूरत ही नहीं है ।
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प्रकरण आ जानेसे यहाँ मैं इस बात का खुलासा और कर देना चाहता हूँ कि कुछ जैन बन्धु बैल, हाथी, घोड़ा, चक्रवाक आदि पशु-पक्षियों के चिह्न मिल जाने से उन्हें जैन तीर्थंकरोंका स्मारक समझ लेते हैं। यह ठीक है कि जैनियोंने तीर्थंकरोंकी मूर्तियोंको पहिचाननेके लिये मूर्तियोंके नीचे नाम लिखनेकी अपेक्षा पशु-पक्षियोंके चिह्नोंकी कल्पना की है परन्तु प्राचीन धर्मोकी तरह जैनधर्ममें इन पशु-पक्षियोंका कुछ महत्त्व नहीं है जिससे जैन लोग इनकी स्वतन्त्र मूर्तियाँ या चित्र बनाते । इनका उपयोग मूर्तियोंको पहिचाननेके चरण- चिह्न के रूप में ही हुआ है । इसलिये पशु-पक्षियों की मूर्तियोंसे जैन तीर्थंकरों का अस्तित्व न समझना चाहिये । दूसरा भ्रम भी कुछ जैन-बन्धुओंको यह है कि वे मोहन-जो-दड़ोमें किसी चीजको पाते ही उसे पाँच हजार वर्ष पुरानी समझ लेते हैं । मोहन-जो-दड़ोमें पाँच हजार वर्षतककी पुरानी चीजें मिली हैं परन्तु सभी चीजें उतनी पुरानी नहीं हैं । मोहन-जोदड़ो की खुदाई के सात स्तर हैं । उनमें नीचेसे जो पहला स्तर है उसीमें पाँच हजार वर्षकी पुरानी चीजें हैं। दूसरे, तीसरे, चौथे स्तर में तो माध्यमिक कालकी वस्तुएँ हैं और ऊपरके प्रस्तरोंमें तो डेड़-दो हजार वर्ष से भी कम पुरानी चीजें हैं । यही कारण है कि मोहन-जोदो में बौद्ध स्तूप वगैरह भी मिले हैं जो दो हजार वर्षसे पुराने नहीं हैं।