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प्राचीनताकी आलोचना
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उपक
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- अच्छा भाई, होगे तुम 'जिन' |
ऐसा कहकर वह लापर्वाहीसे सिर हिलाकर चला गया ।
इस उद्धरणसे साफ मालूम होता है यहाँ 'अनन्त जिन' शब्दका अर्थ कोई व्यक्तिविशेष नहीं हैं किन्तु पदविशेष हैं। मैं पहले कह चुका हूँ कि पुराने समय में जिन, अर्हत्, बुद्ध आदि शब्दों का उपयोग अत्यन्त पवित्र महात्माओंके लिये हुआ करता था । जैन, बौद्ध, आजीवक, पूर्णकाश्यप आदि सभी अपने अपने सम्प्रदाय के महात्माओंके लिये इन शब्दों का प्रयोग करते थे । यही कारण है कि एक आजीवक साधु भी 'जिन' शब्दकी दुहाई देता है ।
'अनन्त जिन' शब्दका अर्थ अगर अनन्तनाथ नामक जैन - तीर्थंकर होता तो एक आजीवक उस नामकी दुहाई कभी न देता । उस समय जैन और आजीवकोंमें भारी द्वेष था । आजीवकोंके 'जिन' मस्करी गोशाल और म० महावीर में बहुत भयंकर विरोध हुआ था । तब एक आजीवक अगर किसी व्यक्तिविशेषकी दुहाई दे, तो अपने तीर्थंकरकी दुहाई देगा न कि एक जैन - तीर्थंकरकी ।
दूसरी बात यह है कि अनन्तनाथ तो चौदहवें तीर्थंकर माने जाते हैं, तब चौबीसवें तीर्थंकरके समय में चौदहवें तीर्थंकर के नामकी दुहाई देनेका क्या मतलब है ? अगर दुहाई देना थी तो महावीर के नामकी देना थी अथवा, म० महावीरके नामकी प्रसिद्धि उस समय अधिक नहीं हो पाई थी तो, म० पार्श्वनाथके नामकी दुहाई देना चाहिये थी । तीर्थंकरोंके जीवनोंमें अनंतनाथके जीवन में ऐसी कोई विशेपता नहीं है और न उनकी ऐसी विशेष प्रसिद्धि है जिससे यह कहा