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महात्मा महावीर समाधान करना, लोग उस मार्गमें अच्छी तरह चल सकें इसके लिये नियम बनाना, तथा उन सबको पहले अपने जीवनमें उतारना, अनुभव करना, पीछे दूसरोंसे कहना-यह विशाल कार्यक्षेत्र महावीरके सामने पड़ा था। इसको पार किये बिना वे एक शब्द भी किसीसे नहीं कहना चाहते थे । बारह वर्ष तपस्याके समय उन्होंने अनुभवपूर्वक जो प्रत्येक बातका निर्णय किया वह निर्णय पूर्णताको प्राप्त होनेपर केवलज्ञान' कहलाया । पीछेसे उन्होंने यह ज्ञान अपने शिष्योंको भी कराया परन्तु शिष्योंका वह ज्ञान अनुभवमूलक नहीं था किन्तु उनके मुँहसे सुना हुआ था, इसलिये 'श्रुतज्ञान' कहलाया । उनका ज्ञान अनुभवमूलक था इसलिये वह 'प्रत्यक्ष' कहलाया जब कि शिष्योंका श्रुतज्ञान 'परोक्ष' कहलाया। शिष्योंका यह श्रुतज्ञान भी जब तप करते करते ( किसी वस्तुका विचार करना भी तप है ) अनुभव-मूलक हो जाता था तब वह भी 'केवलज्ञान' कहलाता था।
म० महावीर अपनेको पवित्र और केवलज्ञानी बना लेना चाहते थे । जब तक उन्होंने इस पवित्रता और केवलज्ञानको प्राप्त न कर लिया तबतक किसीको कुछ उपदेश नहीं दिया । इसलिये जैनशास्त्रों में यह लिखा हुआ है कि बारह वर्ष तक उन्होंने 'मौन' रक्खा । इसका अर्थ लोगोंने यह समझ लिया कि बारह वर्ष तक किसी तरहकी बातचीत ही नहीं की; परन्तु यह बात नहीं है । 'मौन' रखनेका अर्थ सिर्फ इतना ही है कि उन्होंने धर्म-प्रचारका काम नहीं किया । आज भी किसी विशेष विषयमें न बोलने वाले मनुष्यसे हम कहते हैं कि तुमने 'मौन' क्यों ले लिया है ? भले ही वह अन्य बातें करता हो, परन्तु जिस विषयमें उसे बोलना चाहिये उस विषयमें न बोलनेसे वह 'मौनी' कहलाता है। .