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महात्मा महावीर
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इन्द्र अपने अधीन देवोंको इन उत्पातोंसे न रोकते थे। इसी प्रकार भगवान्की सेवा करनेवाले देव आपत्तिके समयपर सूरत भी न दिखलाते थे और अनावश्यक समय खूब हाज़िरी दिया करते थे। मतलब यह कि जब कोई भक्त ऐसी कल्पनाएँ करने लगता है तब उसे यह चिन्ता नहीं रहती कि ऐसी अविश्वसनीय कल्पनाओंसे घटनाका अस्तित्व भी अविश्वसनीय हो जायगा। उसे तर्क-वितर्कसे कुछ मतलब नहीं रहता । वह तो यह देखता है कि मेरा इष्टदेव बाहिरी बातोंमें भी किसीके इष्टदेवसे कम न रह जाय । सभी सम्प्रदायोंने अपने इष्टदेवका महत्त्व बढ़ानेके लिये बेचारे इन्द्रादि देवोंका इसी तरह प्रयोग किया है, क्योंकि साधारण लोग किसी आत्माकी महत्ता ऐसी ही बातोंमें समझते हैं। परन्तु धर्मका मर्म जाननेवालेके सामने ऐसी घटनाओंका कुछ भी महत्त्व नहीं है। वह उन घटनाओंके प्राकृतिक रूपमें ही वास्तविक महत्त्वके दर्शन करता है । ___धर्मके नामपर उस समय जैसा अकाण्ड ताण्डव हो रहा था, निरपराध प्राणियोंकी जैसी हत्या हो रही थी, परलोक, आत्मा आदिके विषयमें जैसी कल्पनाएँ उड़ा करती थीं, समन्वय न होनेसे पारस्परिक विरोध जैसा भयङ्कर रूप धारण कर रहा था, स्त्रियों और शूद्रोंका जैसा अपमान और दमन हो रहा था, संयमकी जिस प्रकार हत्या हो रही थी, लोग चरित्र-बलसे जैसे शून्य हो रहे थे उसे देखकर महावीरका मन बहुत चिन्तित रहता था। यद्यपि महात्मा पार्श्वनाथका धर्म चल रहा था परन्तु उसमें बहुत शिथिलता आ चुकी थी और बहुत-सी त्रुटियाँ भी थीं। इन सबका सुधार करके युगान्तर उपस्थित करनेका विचार महावीरके मनमें सदा