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महात्मा महावीर
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विभूतियोंकी असिद्धता, अकिंचित्करता ( अनावश्यकता) सिद्ध हो
जाती है ।
जिस प्रकार घुँघची, मूँगा आदिके वन्य और ग्रामीण आभूषणोंसे किसी सुन्दरीका सौन्दर्य विकृत दीखने लगता है उसी प्रकार अनेक अतिशयोंसे म० महावीरके चरित्रको विकृत कर दिया गया है । हर्षकी बात यही है कि जैन - शास्त्रोंमें अतिशयोंकी निरर्थकता आदिको सिद्ध करनेवाले उल्लेख मिलते हैं -- अनेक सुप्रतिष्ठित आचार्य इन भक्ति - कल्प्य घटनाओं की निःसारताकी घोषणा करते रहे हैं । यद्यपि वे भक्ति-कल्प्य बातोंका बहिष्कार नहीं कर सके, फिर भी जो कुछ वे कर सके वह बहुत था । यदि आजसे डेढ़-दो हजार वर्ष पहले इन अतिशयोंका कुछ मूल्य नहीं था तो इस वैज्ञानिक युगमें तो इनका मूल्य क्या हो सकता है ? इसलिये अगर इन अप्रामाणिक और अनावश्यक घटनाओंको अलग करके हम म० महावीरके पवित्र चरित्रपर विचार करें तो हमें अपूर्व सात्विक आनन्द मिलेगा । इन भक्ति कल्प्य राजस घटनाओंके पढ़नेसे हमें वास्तविक आनन्द नहीं मिलता, बल्कि एक तरहका नशा चढ़ता है । इस नशेमें हम म० महावीरके नामकी पूजा कर सकते हैं किन्तु जैनधर्मकी पूजा नहीं कर सकते ।
यदि हम जैनधर्मको वैज्ञानिक धर्मके रूप में देखना चाहते हैं तो हमें उसके साहित्य में से यह ' अद्भुत रस ' निकाल देना चाहिये । म० महावीरके जीवन चरित्रमेंसे ही क्या, परन्तु जैनधर्मके अन्य अङ्गों में भी जो यह ' अद्भुत रस' बढ़ गया है अथवा जो शिष्योंको समझानेके लिये उदाहरणार्थ आया था और आज वैज्ञानिक सत्यके