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प्राचीनताकी आलोचना
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__ ऊपर जो सीलें बतलाई गई हैं पहले तो उनकी प्राचीनता निर्विवाद नहीं है, दूसरे वह जैन प्रतिमा हैं इसका भी कोई प्रमाण नहीं है। वे मथुराकी मूर्तियोंसे मिलती हैं—पहले तो इसीमें अतिशयोक्ति है । दूसरे इतनेपर भी वे शिवकी या और किसी देवकी मूर्ति हो सकती हैं। तीसरे उनका मथुराकी मूर्तियों से मिलना उनकी अर्वाचीनताका सूचक है। इसलिये मोहन-जो-दड़ोकी खुदाईसे जैनधर्मको महावीरसे पहलेका सिद्ध करना भ्रम है। ___ हाँ, यहाँ एक बात और याद आती है । वह यह कि श्वेताम्बर
शास्त्रोंमें म० महावीरके विहारका विस्तृत वर्णन है । वे विहारमें कहाँ ठहरते थे इसका अनेक स्थानोंपर उल्लेख होता है और उसमें विशेषतः यक्ष-मन्दिरोंका ही वर्णन आता है, जैनमन्दिर आदिका कहीं भी उल्लेख नहीं आता। यदि जैनधर्म म० महावीरके पहलेका होता और उस समय जैन-तीर्थंकरोंकी मूर्तियाँ प्रचलित होतीं तो यह सम्भव ही नहीं था कि महावीर स्वामी यक्ष-मन्दिरोंमें तो ठहरते फिरते किन्तु जैन-मन्दिरोंमें या उनके आसपास न ठहरते । यह सम्भव नहीं है कि श्वेताम्बर शास्त्रकारोंने जैन-मन्दिरोंके उल्लेखोंको उड़ा दिया हो; क्योंकि श्वेताम्बरोंको भी जैनधर्मकी प्राचीनता प्रिय है । ऐसी अवस्थामें वे इस विषयके कल्पित प्रमाण बनाते यह तो किसी तरह सम्भव भी था परन्तु उपलब्ध प्रमाणोंका नाश करते यह किसी तरह सम्भव नहीं था। जैनधर्मको म० महावीरसे प्राचीन न माननेका यह भी एक ज़बर्दस्त प्रमाण है ।
जो बात ऋषभदेवके विषयमें है वही बात अरिष्टनेमिके विषयमें भी है। वेदोंमें अरिष्टनेमिका नाम मिलता है । यद्यपि इस शब्दके