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जैनधर्म-मीमांसा
आचार्य विद्यानन्द ने इस विषयका और भी अधिक स्पष्टीकरण किया है। वे लिखते हैं
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NAMAT
" भगवानके समान वे विभूतियाँ मष्करी आदि मायावियोंमें भी देखी जाती हैं, इसलिये हे भगवन् ! आप हम सरीखे परीक्षा - प्रधानियों ( समझपूर्वक जैनधर्मको माननेवालों ) के पूज्य नहीं हो सकते | आज्ञाप्रधानी लोग भले ही इन विभूतियोंको परमात्माका चिह्न समझें, परन्तु हम लोग नहीं समझ सकते क्योंकि ऐसी विभूतियाँ मायावियोंमें भी देखी जाती हैं। जो लोग ऐसा कहते हैं कि ' भगवान् पूज्य हैं क्योंकि उनके पास देवागम आदि विभूतियाँ हैं ' उनका कहना ठीक नहीं है, क्योंकि उनका हेतु आगमाश्रय होनेसे असिद्ध हेत्वाभास है । (अर्थात् भगवानकी ये विभूतियाँ प्रत्यक्ष अनुमान - प्रमाणोंसे सिद्ध नहीं हैं ।) जो लोग इन विभूतियोंपर विश्वास करते हैं उनकी दृष्टिमें भी यह हेतु ( विभूतिमत्त्व ) अनैकान्तिक न होनेसे ठीक नहीं है । ""
. इससे मालूम होता है कि भक्त लोगोंने जो ३४ अतिशय माने हैं उन्हें ये दोनों ही प्रथम श्रेणके आचार्य बिलकुल साधारण, अनावश्यक और असिद्ध मानते हैं। बल्कि जो लोग इन अतिशयों में विश्वास करते हैं उन्हें ये आज्ञाप्रधानी कहकर हीनदृष्टिसे देखते हुए
१- - ताश्च भगवतीव मायाविष्वपि मष्करिप्रभृतिषु दृश्यन्ते इति तद्वत्तया भगवन्नोऽस्माकं परीक्षा-प्रधानानां स्तुत्योऽसि । आज्ञाप्रधाना हि त्रिदशादिकं परमेष्ठिनः परमात्मचिह्नं प्रतिपद्येरन्, नास्मदादयस्तादृशो मायाविष्वपि भावात् । ' श्रेयोमार्गस्य प्रणेता भगवान् स्तुत्यो महान् देवागमनभोयानचामरादिविभूति मत्त्वान्यथानुपत्तेः ' इति हेतोरागमाश्रयत्वात् । तस्य च प्रतिवादिनः प्रमाणत्वेना. सिद्धेः तदागमप्रामाण्यवादिनाम् अपि विपक्षवृत्तितया गमकत्वायोगात् ।
- अष्टसहस्री ।