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केशी - गौतम-संवाद
दो बातें समझना है । एक तो श्रमण महात्मा पार्श्वनाथका अस्तित्व और दूसरी उनके धर्मका जुदापन |
इससे सिद्ध होता है कि म० महावीर जैनधर्मके संस्थापक थे । उन्होंने प्राचीन धर्मोकी बहुतसी बातें लेकर —– जैसा कि हरएक धर्मसंस्थापकको करना पड़ता है— तथा अनुभवसे कुछ नये नियम बनाकर - जिनका ठीक ठीक बताना कठिन है – एक नये धर्मकी रचना की, जिसका नाम पीछेसे जैनधर्म हो गया ।
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कुछ लोग जैन - साहित्यके कुछ नामोंका उल्लेख म० महावीर से पुराने समयमें पाकर जैनधर्मको उतना ही प्राचीन माननेकी भूल कर बैठते हैं । इसी आधारपर जैनसमाजमें एक तरहके प्रमाण प्रचलित हैं कि " जैन तीर्थङ्करोंके नाम वेदोंमें तथा प्राचीन पुस्तकोंमें पाये जाते हैं । परन्तु यह कोई प्रबल प्रमाण नहीं है । क्योंकि अभी इतना I निर्णय करना बाकी ही है कि जैनधर्मके नाम वेदोंमें आये हैं या वेदोंमें आये हुए उन व्यक्तियोंके नामोंको जैनियोंने अपनाकर उन्हें जैन - पुरुषके रूप में चित्रित किया है । प्राचीन पुरुषोंको नये साँचे में ढालकर अपना लेनेका काम सदासे होता आया है । रामचन्द्रजी वैदिक रामायण के अनुसार वैदिक थे, जैन- पुराणके अनुसार जैन, और बौद्ध जातक के अनुसार बौद्ध । अब अगर बौद्ध कहें कि रामचन्द्रजी बौद्ध थे, इसलिये बौद्धधर्म रामचन्द्रजीके जमाने में था, तो यह बात मान्य नहीं हो सकती । वेद में अगर विष्णुका नाम मिले तो वैष्णव धर्मको वैदिक युगका नहीं कहा जा सकता । अगर वेदोंमें ' आर्य ' शब्द मिलता है, तो वर्तमानका आर्य समाज वेदोंके समयमें था यह नहीं कहा जा सकता । अगर किसी प्राचीन विवरणमें यह
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