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प्राचीनताकी आलोचना
है कि अग्र-जिनकी मूर्ति नन्दराजके समयमें थी । इस प्रकार महावीरके साठ वर्ष पीछे ऋषभदेवकी मूर्तिका सद्भाव सिद्ध होता है । कुछ विद्वानोंका मत है कि यह मूर्ति कलिंगाधिपतिके यहाँ वंशपरम्परासे आई होगी, क्योंकि इसे 'कलिंग-जिन' कहा है। इससे यह मूर्ति म० महावीरसे भी पुरानी मालूम होती है । महावीरके समयमें और उनके पीछे बासठ वर्ष तक केवलियोंका सद्भाव था, इससे उस समय तो मूर्तिकी जरूरत ही नहीं मालूम होती, इसलिये यह मूर्ति उनके पहलेकी होगी।
उत्तर-इस प्रश्नमें ऐतिहासिक दृष्टिकी पूरी अवहेलना है । शिलालेखवाली बातोंकी अगर अधिक आलोचना न भी की जाय तो भी मूर्तिकी प्राचीनता चौबीस सौ वर्षसे अधिक नहीं रहती। म० महावीरके बाद साठ वर्षमें तीन पीढ़ियाँ बीतती हैं। इनमें मूर्तियोंका बन जाना न तो असंभव है, न कठिन, बल्कि स्वाभाविक है । म० महावीरके समयमें ही लाखों श्रावक हो गये थे, इसलिये उनके निर्वाणके बाद उनकी और उनने जिन तीर्थंकरोंकी कहानियाँ कहीं थीं उनकी मूर्तियाँ बन जाना स्वाभाविक है । इसके लिये शताब्दियाँ नहीं किन्तु उँगलियोंपर गिने जानेवाले वर्ष ही बहुत हैं। 'कलिंग-जिन' कहनेसे उसकी प्राचीनता नहीं परन्तु क्षेत्रान्तरितता सिद्ध होती है । एक वस्तु जब एक जगहसे दूसरी जगह जाती है तब पुराने क्षेत्रके नामसे उल्लिखित होती है । एक गुजराती जब दक्षिणमें बस जाता है तब गुजराती उसका 'सरनेम' हो जाता है। इसी प्रकार जब कलिंगकी मूर्ति नंदके यहाँ पहुँची तब वह 'कलिंग-जिन 'के नामसे कही जाने लगी, कलिंगमें पुरानी हो जानेसे वह 'कलिंग-जिन' नहीं बन गई । तार्थंकरों