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जैनधर्मकी स्थापना
प्रशंसा भर जाती है । बड़े बड़े विद्वान् और सत्यपरायण व्यक्ति भी धर्मोन्नति के लिये असत्य कल्पनाओंका आश्रय लेते हैं । कभी कभी लोक-हितकी दृष्टिसे भी उन्हें ऐसा करना पड़ता है । परन्तु कालान्तर में असत्यका दुष्फल समाजको भोगना ही पड़ता है ।
ऐतिहासिक निरीक्षण में धार्मिक साहित्यका उपयोग तो करना चाहिए परन्तु विना विचारे उसे प्रमाण न मानना चाहिये । अगर वह वर्णन स्वाभाविक हो तथा असत्य बोलनेका कोई पर्याप्त कारण न मिलता हो तभी उसे सत्य स्वीकार करना चाहिये ।
ऐतिहासिक निरीक्षणमें सबसे पहले प्राचीनताकी बीमारीका सामना करना पड़ता है। अधिकतर धर्मोका साहित्य अपने अपने धर्मो को अनादि या लाखों वर्षका पुराना कहता है । यहाँ तक कि वह मनुष्य जाति के इतिहास से भी आगे बढ़ जाता है । सच पूछा जाय तो यह प्राचीनताकी बीमारी है । मनुष्यके स्वभावमें जो स्थिति - पालकता या रूदि-प्रियता रहती है उसीका यह फल है जो कि धार्मिक साहित्य में भी घुस गया है ।
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सच पूछा जाय तो प्राचीनकी अपेक्षा नवीन अधिक हितकर होता है । प्राचीनकी अपेक्षा नवीनमें तीन विशेषताएँ होती हैं ।
१ - नवीन हमारी परिस्थितिके निकट होनेसे प्राचीनकी अपेक्षा हमारी परिस्थितिके अधिक अनुकूल होता है ।
२ - ज्यों ज्यों समय जाता है त्यों त्यों मूल वस्तु विकृत या परिवर्तित होती जाती है और प्राचीनकी अपेक्षा नवीनमें कम विकार पैदा होते हैं इसलिये नवीनका मौलिक रूप हमारे सामने अधिक स्पष्ट होता है ।