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जैनधर्म-मीमांसा
कोसके मनुष्य तथा अर्थौ खर्बो तथा असंख्य योजनोंके द्वीप समुद्रोंकी कल्पना करना पड़ी । अब खर्वौ तथा असंख्य वर्षों की आयुवाले मनुष्योंका कल्पित इतिहास भी लिखना पड़ा। जैनशास्त्रोंके अनुसार इस युगमें जैनधर्मके संस्थापक महात्मा ऋषभदेव थे । उनकी आयु ५९२७०४०० ०००० पांच हजार नवसौ सत्ताईस शंख वर्षोकी थी और शरीर भी एक हजार गज लम्बा था । इसके पहले इससे भी करोड़ों गुणी या असंख्य गुणी आयु और बारह हजार गजका शरीर होता था । इतनी उँचाईपर तो हवा इतनी पतली रह जाती है कि उससे मनुष्य जीवित नहीं रह सकता । अगर ये सब बातें सूक्ष्मताके साथ लिखी जायँ तो सैकड़ों हास्यास्पद बातें लिखना पड़ेंगीं । इन सब वर्णनोंको इतिहासकी आधार - शिला बनाना इतिहासकी मिट्टी पलीद करना है ।
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परन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि जिनने ये कल्पनाएँ की थीं मूर्ख थे, मिथ्यावादी थे या वञ्चक थे । वास्तवमें वे विद्वान्, चतुर, सत्यवादी और लोकहितैषी थे । जब उन्होंने देखा कि इस प्रकारकी बातें सुनाये विना जनताको सन्तोष नहीं होता और उसके बिना वह धर्ममार्ग - सदाचारको भी स्वीकार नहीं करती, तब उनने जन हितकी दृष्टिसे यह सब किया । इसलिये हरएक धर्मके साहित्य में ऐसा वर्णन मिलता है । यह धर्म-संस्थापकोंकी मनोवैज्ञानिक चतुरता है । इसे इति - हास समझ लेना भूल है । आज इसका बिलकुल उपयोग नहीं है, परन्तु कभी था ।
इस कथनसे इतनी बात तो स्पष्ट हो ही जाती है कि जैनधर्मके चौबीस तीर्थंकरों का वर्णन कल्पित है । इसके अतिरिक्त ऊपरकी