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जैनधर्मकी स्थापना
धर्म-संस्थामें धर्मके मौलिक तत्त्व अवश्य रहते हैं । उसके नियमोपनियम क्रिया-कांड आदि देश-कालके अनुसार बनाये जाते हैं और उनमेंका अधिकांश मसाला प्राचीन धर्म-संस्थाओंमेंसे लिया जाता है । जहाँ तक बनता है पुरानी धर्म-संस्थाओंके खास खास शब्द अपनाये जाते हैं और उनका नया अर्थ किया जाता है जिससे शब्दभीरु जनता विना किसी हिचकिचाहटके नूतन समयोपयोगी अर्थ ग्रहण कर ले। ___ असल बात जो यहाँ ध्यानमें रखनेकी है वह यह कि एक धर्म-संस्थामें दो तीर्थंकर नहीं होते । तीर्थंकरका अर्थ है तीर्थको बनानेवाला । तीर्थ धर्मका एक सामयिक रूप है। धर्म अगर पानी है तो धर्म-तीर्थ एक तालाब है । जिनको आज हम धर्म कहते हैं वे एक एक तीर्थ हैं । अगर तीर्थंकर दो हैं तो समझना चाहिये कि तर्थि भी दो हैं । जैन-धर्म भी एक धर्म-संस्था है, एक धर्म-तीर्थ है, इसलिये उसका कोई तीर्थंकर अवश्य होना चाहिये और एक ही होना चाहिये। ___ आधुनिक जैनशास्त्रोंके अनुसार जैन तीर्थंकर चौबीस हुए हैं। भोग-भूमि और प्रलयके बीचके प्रत्येक महान् युगमें चौबीस चौबीस तीर्थंकर होते रहते हैं, इस प्रकार जैनधर्म अनादि है ।
इस वक्तव्यमें वही मनोवृत्ति काम कर रही है जिसका ज़िकर मैं ऊपर कर आया हूँ कि धर्म-संस्थाके नेताओंको अपनी धर्म-संस्था अनादि और प्राचीन सिद्ध करना पड़ती है । इसी प्रकार जैन नेताओंको भी यही करना पड़ा । साथ ही एक कल्पित इतिहास तथा विश्व-रचनाका रूप दिखलाना पड़ा । इसके अनुसार तीन तीन