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केशी- गौतम संवाद
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खण्डन नहीं किया था । उनके शास्त्रोंमें दूसरे दर्शनोंका परिचय भी नहीं कराया गया था; जब कि म० महावीरने उस समय के प्रत्येक दर्शनका अपने शिष्योंको परिचय कराया था और उसकी आलोचना भी अपने शिष्यों को समझाई थी । इससे म० महावीर के असाधारण पाण्डित्य या सर्वज्ञताका परिचय मिलता है ।
तो पैदा होता ही
नवम प्रश्नका रूप विकृत हो जानेसे बहुत अस्पष्ट है । सम्भव है उस समय इस शंकाका समाधान न हो पाया हो कि " द्रव्य कर्मसे भाव कर्म, और भाव कर्मसे द्रव्य कर्म रहता है, फिर इस परम्पराका अन्त कैसे होगा ? इसका उत्तर गौतमने दिया हो तथा धर्मके द्वारा वृक्ष - बीजके समान द्रव्य कर्म और भाव कर्मकी सन्तति कैसे नष्ट हो जाती है यह समझाया हो ।
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दसवें प्रश्नसे मालूम होता है कि उस समय पार्वापत्योंके सामने एक महान् प्रश्न था कि " शरीरसे प्रतिसमय हिंसा होती रहती है, इसलिये हर समय हमें पाप लगता है, तब भला इस पापी शरीर के द्वारा हम मोक्षके द्वारतक कैसे पहुँच सकते हैं ? " इसके उत्तरमें गौतमने कहा कि " हमें मिथ्यात्व, अविरति आदि आश्रवोंको रोक देना चाहिये, इससे पाप नहीं बँधेगा। नौका बुरी नहीं है, नौकाके छिद्र बुरे हैं । छिद्र बन्द कर देनेपर हम मोक्षके द्वारतक पहुँच सकते हैं।" जैनधर्मकी अहिंसाको न समझनेवाले आज भी शरीरकी दुहाई देकर अहिंसाको अव्यवहार्य बतलाते हैं । यह प्रश्न उस समय भी जो पर होगा जिसका ठीक ठीक समाधान पार्श्वपित्य न कर सके होंगे । किन्तु म ० महावीर ने उसका पूर्ण समाधान किया है, जिसका उल्लेख गौतमने किया होगा ।