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जैनधर्म-मीमांसा
यह अपराध क्षन्तव्य है । परन्तु अब जगत् इतना आगे बढ़ गया है। कि इस रद्दी शस्त्रका उपयोग आजकल निरर्थक और दुरर्थक है ।
हिन्दू धर्म में अनेक या चौबीस अवतार, जैनियोंमें चौबीस तीर्थंकर, बौद्धो में चौबीस बुद्ध, और ईसाई और मुसलमानोंमें अनेक सैकड़ों हजारों - पैगम्बरोका वर्णन आता है। इनमें अनेक ऐतिहासिक व्यक्ति होते हैं और अनेक कल्पित । परन्तु उनको जो अपने धर्मका जामा पहिना दिया जाता है वह पूर्ण कल्पित होता है ।
धर्म प्रचार के लिये तथा धर्म - संस्थाको बद्धमूल करनेके लिये ये उपाय भले ही उपयोगी हुए हों परन्तु इनका ऐतिहासिक मूल्य नहींके बराबर है । यहाँ हम उनकी हितैषिताका जितना दर्शन पाते हैं ऐतिहासिक सत्यताका उतना ही अभाव पाते हैं । इसलिये जब हम ऐतिहासिक दृष्टिसे धर्मोका अध्ययन करना चाहें तब हमें धर्मशास्त्रोका कठोर पररक्षण करना पड़ेगा । श्रद्धालु हृदयको इससे कष्ट पहुँच सकता है परन्तु हृदयका मवाद निकालने के लिये यह आवश्यक है ।
जो लोग धर्मको उसके संस्थापकसे भी प्राचीन मानते हैं वे धर्म और धर्म-संस्थाके भेदको भूलकर बड़ीसे बड़ी भूल करते हैं । धर्मकी प्राचीनताको धर्म - संस्थाकी प्राचीनता समझना ऐसा ही है जैसे कि पानीकी प्राचीनताको किसी तालाबकी प्राचीनता समझना । धर्म तो एक ऐसा व्यापक तत्त्व है जो आंशिक रूपमें सभी धर्म-संस्थाओंमें रहता है । वह इतिहासातीत है या प्राणि-जगत् का इतिहास ही उसका इतिहास है; जब कि धर्मसंस्था मनुष्यके द्वारा बनाई हुई एक संस्था है जोकि किसी खास देश कालके लोगों के हितके लिये बनाई गई है । धर्मरूपी वस्तुकी वह एक अवस्था है जिसका आदि भी है और अंत भी है ।