________________
जैनधर्मकी स्थापना
प्राचीन कालके सब महापुरुष क्या कल्याणहीन थे ? आज तुम्ही एक नये सूर्य ऊगे हो ? यदि तुम्हारे धर्मके विना भी आजतक जगत्का काम चला है, लोगोंका कल्याण हुआ है तो हमारा भी होगा। हमें तुम्हारे धर्मकी कोई जरूरत नहीं है।"
इस आक्षेपका युक्तियोंसे अच्छा उत्तर दिया जा सकता है, परन्तु प्राकृत जनको युक्तियोंसे संतोष नहीं होता । वह बुद्धिकी सन्तुष्टि नहीं चाहता किन्तु मनकी सन्तुष्टि चाहता है । भले ही वह कल्पनाओंसे ही क्यों न की जाय । इसलिए धर्म-संस्थापकों और प्रचारकोंको उसी मार्गका अवलम्बन लेना पड़ता है । वे घोषित करते हैं कि हमारा धर्म सृष्टिके या युगके आरम्भसे ही है और प्रत्येक सृष्टिमें-प्रत्येक युगमें उसका आविर्भाव तिरोभाव होता है, इस प्रकार वह अनादि है।
इसकी उपपत्ति बिठलानेके लिये कल्पित इतिहास रचा जाता है। प्राचीन युगके कल्पित अकल्पित जिन व्यक्तियोंने लोगोंके हृदयमें स्थान जमा लिया होता है उन सबको अपने सम्प्रदायका सिद्ध कर लिया जाता है उनके जीवन-चरित्र बदलकर संस्कृत कर लिये जाते हैं। कोई उन्हें अवतार, कोई तीर्थंकर और कोई पैगम्बर बना देता है। इस प्रकार प्राचीन महापुरुषोंको अपना मित्र बनाकर उनके आसनपर अपना स्थान बना लिया जाता है, और इस प्रकार लोगोंको समझा दिया जाता है कि हमारे इस धर्मके विना न कभी जगत्का काम चला है न चलेगा। हमारा यह धर्म नया नहीं है किन्तु प्राचीन धर्मका पुनरुद्धार है । प्रायः सभी धर्म-संस्थापकों और प्रवर्तकोंको इसी नीतिसे काम लेना पड़ा है। प्राचीन समयकी परिस्थितिपर विचार करते हुए