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जैनधर्म-मीमांसा
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३-प्राचीनके कर्ताको जितना अनुभव और साधन-सामग्री मिलती है नवीनके कर्ताको उससे अधिक अनुभव और साधन-सामग्री मिलती है, जिसका प्रभाव नवीन वस्तुपर. पड़ता है।
इसका यह मतलब नहीं है कि जितना नवीन है सब अच्छा है । तात्पर्य इतना ही है कि प्राचीनकी अपेक्षा नवीनको अच्छा होनेका अधिक अवसर है । हो सकता है कि किसी नवीनमें अधिक अवसरका ठीक ठीक पूरा उपयोग न हुआ हो और किसी प्राचीनमें कम अवसरका भी उचित उपयोग हुआ हो, इसलिये कहींपर कोई प्राचीन नवीनकी अपेक्षा अच्छा हो । परन्तु अवसरोंका समान उपयोग किया गया हो तो प्राचीनकी अपेक्षा नवीन अधिक अच्छा है । अगर हमें दो विचारों से किसी एकका चुनाव करना हो और उसकी जाँच करनेका और कोई साधन हमारे पास न हो तो प्राचीनकी अपेक्षा नवीनका चुनाव कल्याणकर है । प्राचीनताके मोहने अनेक असत्यताओं और अनर्थोंको जन्म दिया है, इसलिये इस विषयका पक्षपात सर्वथा हेय है।
कहा जा सकता है कि जब प्राचीनता इस प्रकार हेय है तब सभी धर्मोके आचार्योने अपने अपने धर्मको प्राचीनतम सिद्ध करनेकी कोशिश क्यों की ? इसका कारण है जनताका आक्रमण । सुधारकों और क्रान्तिकारियोंके विरुद्ध जनताका आक्रमण होता ही है । परन्तु उनकी युक्तियोंके आगे जब वह टिक नहीं सकती तब उसका कहना यही होता है कि " आजतक तुम्हारे सुधारके विना दुनियाका काम कैसे चला ? यदि तुम्हारे बताये हुए मार्गसे ही आत्माका कल्याण हो सकता है, तब क्या आजतक कभी किसीका कल्याण हुआ ही नहीं ?