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जैनधर्म-मीमांसा
दूसरा अध्याय
ऐतिहासिक निरीक्षण
जैनधर्मकी स्थापना
किसी धर्मका ऐतिहासिक निरीक्षण किये बिना उसका रहस्य समझ में नहीं आता । धर्म-संस्थाओं की स्थापना जन-समाजके कल्याणके लिये और उसकी उन्नति के लिये हुआ करती है, इसलिये धर्म-संस्थाका निर्माण भी जन-समाजकी परिस्थितिके अनुकूल हुआ करता है। एक ही आदमी दो भिन्न भिन्न देशों और समयों में अगर धर्म-संस्थाएँ बनावें तो दोनों ही संस्थाएँ जुदे जुदे ढंगकी होंगीं । इससे समझा जा सकता है कि धर्म-संस्थाओंके नियम अटल-अचल नहीं हैं किन्तु देश - कालकी परिस्थितिके फल हैं । इसलिये देश कालके बदलने पर उनको बदल
का कार्य उचित है । इस रहस्य के ज्ञानसे मनुष्य मेंसे धार्मिक कट्टरता कम होती है, दूसरे धर्मोसे घृणा कम होती है, विचारकता और सुधारकता आती है और इस प्रकार वह धार्मिकता और वैज्ञानिक सत्य, दोनों प्रकारके सत्यके नजदीक पहुँचता है ।
धर्मो ऐतिहासिक निरीक्षण में हमें अधिकसे अधिक सामग्री उसी धर्मके साहित्य से मिलती है । परन्तु उसमेंसे सत्य निकालना बड़ा कठिन होता है । क्योंकि धर्म लोगोंके जीवनका सर्वस्व होता है और उनकी दृष्टिमें उसका स्थान भी सर्वोच्च है । फल यह होता है कि धार्मिक साहित्य में दूसरे धर्मोकी निन्दा और अपने धर्मकी अत्यधिक