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सुखी बननेकी कला
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शिक्षाएँ दुख-सुखको हमारे अधीन कर सकती हैं । इस विषयमें रोगीके समान हमें दो बातोंपर विचार करना चाहिये
रोगी मनुष्यके दो कर्त्तव्य होते हैं । एक रोगकी यथाशक्ति चिकित्सा करना और दूसरे सहनशक्तिसे काम लेना । ये ही दो कार्य दुःख-रोगियोंके लिये हैं—(१) संसारमें सुखकी वृद्धि करना । (२) सुखी माननेका दृढ़ निश्चय करना, अर्थात् सुखकी कला सीखना ।
शंका-मनुष्यको अगर इस प्रकार सुखी रहनेकी कला सिखाई जायगी, तो मनुष्य आलसी और कायर हो जायँगे । उनका संतोष उनकी पराधीनता या गुलामीका कारण हो जायगा जो कि परम्परासे धार्मिक, सामाजिक आदि हर तरहके पतनका कारण होगा ।
समाधान-सुखी रहनेकी कला और उसके साधन संतोष, उदासीनता, क्षमा, त्याग आदि गुणोंसे कायरता आदि दुर्गुणोंमें बहुत अन्तर है । हर एक गुणके पीछे गुणाभास लगा रहता है। जैसे अहिंसाके पीछे निर्बलता, क्षमाके पीछे कायरता, विनयके पीछे दीनता, आदि । उन गुणोंसे इन गुणाभासोंमें आकाश-पातालका अन्तर होता है । गुण जितने उपादेय हैं, गुणाभास उतने ही हेय हैं। ये गुण गुणाभास न बन जायें, इसके लिये संसार में सुखवृद्धि करनेकी पहिली बात हमें भूल न जाना चाहिये । और यह भी याद रखना चाहिये कि मन-वचन-कायकी क्रिया (योग) सदा होती ही रहती है । जब तक मृत्युका पल प्राप्त न हो जाय तब तक मन, वचन और काय कुछ न कुछ काम करते ही रहते हैं । जब काम होना अनिवार्य है तब सुख- वृद्धि या दुःख-हानिका काम होना चाहिये । इसलिये अपनी अपनी नीति और योग्यताके अनुसार प्रत्येक व्यक्तिको