________________
जैनधर्म-मीमांसा
शंका- यदि ऐसा है तो धर्म निवृत्ति या गृहत्यागका ही मुख्य
उपदेश क्यों देता है ?
४०
समाधान- इसके उत्तरमें तीन बातें कही जा सकती हैं— ( क ) जगत्कल्याण के लिये और आत्मकल्याण के लिये निवृत्ति आवश्यक है । जो मनुष्य परिमित स्वार्थीको लिये बैठा रहता है, वह जगत्कल्याणके लिये पूरी शक्ति नहीं लगा सकता । क्योंकि जहाँ सपरिग्रहता है, वहाँ व्यक्तिगत कार्योंका बड़ा भारी बोझ है । निष्परि1 ग्रहके लिए यह बोझ नहीं है । वह घर में रहे या बनमें रहे, परन्तु निष्परिग्रह होना चाहिए । निष्परिग्रहताका रूप सदा सर्वत्र एकसा नहीं होता । तथा निवृत्तिका अर्थ अकर्मण्यता नहीं है, किन्तु वैयक्तिक स्वार्थोके बन्धनोंसे छूट जाना है ।
( ख ) बहुतसे मनुष्य ऐसे हैं कि जो अनेक तरहकी तकलीफें बड़ी प्रसन्नतासे सह सकते हैं । परन्तु उन तकलीफोंसे वे दूसरोंकी नज़रोंमें गिर जायँगे, इसलिए उनसे बचने के लिए निरन्तर आकुलित रहते हैं । मान लो मैं प्रसन्नता से रूखा-सूखा भोजन खा सकता हूँ । परन्तु इससे मैं कंजूस कहलाऊँगा, अथवा मेरे पास अच्छा भोजन करने लायक सम्पत्ति न होगी तो कंगाल कहलाऊँगा - इस अपमानसे बचनेके लिए आवश्यक न होनेपर भी मैं बहुपरिग्रही बनता हूँ । इसके लिए दूसरेको मिलनेवाली सम्पत्ति मैं हड़प जाता हूँ। इस तरह मेरा मानसिक कष्ट बढ़ता है और दूसरोंके साम्पत्तिक कष्टमें सहायक होता हूँ । परन्तु एक निष्परिग्रही साधु रूखा भोजन करने से अपमानित नहीं होता, इसलिये वह दूसरे के भागकी सम्पत्ति नहीं लेता ।