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जैनधर्म-मीमांसा
सुखक साधनोंको जुटाना और दुःखके साधनोंको नष्ट करनेका कार्य करना आवश्यक है । सुखी रहनेकी कलाका यह मतलब नहीं है कि हम दुःखको दूर करनेका उपाय ही न करें; परन्तु हम एक दुःखको दूर करनेके लिए अन्य अनेक दुःखोंको मोल न ले लें, इसके लिये सुखी रहनेकी कला सीखना चाहिए । बीमार होनेपर चिकित्सा करना आवश्यक है, परन्तु अगर कोई बीमारीके नामसे घबरा जाय, तो उसकी बीमारी कई गुणी दुखद हो जायगी और साथ ही वह चिकित्सा भी न कर सकेगा । इसलिये हर हालतमें समभावको स्थिर रखना, यही सुखी रहनेकी कला है । दुःखके आने पर हमें उसका सामना करना चाहिए । सामना करनेके लिये दो बातें आवश्यक हैं । एक तो दुःखको नष्ट करना और उसकी चोटोंको सहन करना। जो आदमी शत्रुर्की चोटोंको नहीं सह सकता, वह शत्रुका नाश भी नहीं कर सकता । उसी प्रकार जो आदमी दुःखकी चोटोंको नहीं सह सकता, अर्थात् दुःख आनेपर सम-भावपर स्थिर नहीं रह सकता, वह दुःखको नहीं जीत सकता । ____ लड़ाईमें कभी कभी ऐसा होता है कि जहाँ शत्रुका प्रवेश अधिक मात्रामें होता है वहाँसे अपना मोर्चा हटा लेना पड़ता है, जिससे शत्रुके गोले खाली जगहमें पड़कर नष्ट हो जायँ । इसी प्रकार कभी कभी ऐसे दुःख आते हैं जिन्हें दूर करनेमें हमें अपने विनाशका, अर्थात् सम-भावके विनाशका ख़तरा रहता है । तब उन चोटोंको हम शरीरपर पड़ने देते हैं, और शरीरका त्याग कर देते हैं, अर्थात् उससे ममत्व हटा लेते हैं । सुख शरीरका धर्म नहीं है, किन्तु आत्माका धर्म है, इसलिए शरीरके दुःखसे आत्मा दुःखी नहीं होता ।