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धर्म-मीमांसा और जैनधर्म
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कि वह स्त्री है । धार्मिक अधिकारोंमें तो विषमताका कोई मतलब नहीं है । फिर भी पुरुषने धार्मिक क्रिया-कांडोंमें नारीके अधिकार छीने हैं । उससे पुरुषको कोई लाभ भी नहीं हुआ। इसलिये यह विषमता भी दूर करनी चाहिये । इस प्रकार सर्वजाति-समभावके समान नर-नारी-समभावकी भी जरूरत है।
इस प्रकार यदि हम सर्व-धर्म-समभाव, सर्व-जाति-समभाव, विवेक या समाज-सुधारकता, निःस्वार्थता आदि गुणोंको लेकर धर्मकी मीमांसा करेंगे, तो सच्चे धर्मको प्राप्त कर सकेंगे। उस धर्मको जीवनमें उतारनेसे हमारा भी कल्याण होगा और जगतका भी कल्याण होगा।
धर्म-मीमांसा और जैनधर्म यहांतक धर्मके विषयमें जो विवेचन किया गया है उसका सार सभी धर्मोमें पाया जाता है । अगर हममें सम-भाव आदि गुण हों तो हम किसी भी धर्मका सहारा लेकर सच्चे धर्मकी प्राप्ति कर सकते हैं । जो धर्म जिस समय पैदा होता है अगर उस समयकी परिस्थितिका प्रभाव उसमेंसे निकाल दिया जाय और उस धर्मके तीर्थंकरकी मनोवृत्ति प्रगट हो जाय तो धर्मों में विरोध ही न रहे ।
परन्तु देश-कालकी परिस्थितिकी छाप धर्मोके रूपपर रहती है, लोगोंके पास पहुँचानेके लिये उसमें कुछ असत्यका मिश्रण भी हो जाता है तथा देश-कालके बदलनेसे उसकी कई बातें आजके लिये निरुपयोगी भी हो जाती हैं । इसलिये अगर उस धर्मको फिर सुसंस्कृत किया जाय उसके लौकिक रूपको प्रगट करनेकी कोशिश की जाय तभी वह धर्म उपयोगी धर्म बन सकता है।