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सुखी बनने की कला
जो लोग सुखी रहनेकी कलाके नामपर आध्यात्मिक जीवनके नामपर, सन्तोष आदि गुणोंके नामपर स्वयं गुलामी स्वीकार करते हैं और संसारमें दुःखकी वृद्धि होने देते हैं, वे इन सब गुणोंसे कोसों दूर हैं ।
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जैसा कि मैं पहिले कह चुका हूँ दुःखको जीतनेके लिए दो बातें हैं। या तो उसकी चोटको सहते हुए ( समभाव रखकर दृढ़ता से आगे बढ़ते हुए) उसे नष्ट कर दो अथवा दुःखकी चोटोंके स्थानको छोड़ दो। जिन लोगोंमें समताभाव होता है, और जो शरीरमें भी निःसंग होते हैं, उनमें कायरता हो नहीं सकती, न वे गुलाम हो सकते हैं और न किसीको गुलाम होते देख सकते हैं । सुखी रहनेकी कला इसलिए नहीं है कि मनुष्य पशुकी तरह दुर्दशामें पड़ा रहे या अपनी सर्वतोमुखी दुर्दशा होने दे । इस कलासे मतलब है उस समभावका, जो घोरसे घोर विपत्ति में भी निराशा और घबराहट नहीं होने देता; इस कला से मतलब है उस वीर - रसका, जिससे मनुष्य विपत्तियोंको उसी तरह देखे जिस तरह शिकारी शिकारको देखता है । विपत्तियोंके सामने आत्मसमर्पण कर देना और गुलामी स्वीकार लेना इस कलाकी हत्या करना है ।
साधारण अवस्थामें मनुष्य अगर स्वतन्त्रताके लिये या अन्य सुखके लिये प्रयत्न करता है किन्तु बीचमें उसे असफलता मालूम होती है या पराजय हो जाता है, तो घबरा जाता है, साहस छोड़ देता है, परन्तु जिसने सुखी रहनेकी कलाको जाना है वह हार करके भी नहीं हारेगा, निःसहाय हो करके भी निराश न होगा। पराजय, निराशा आदि शब्द उसके कोषसे निकल जायँगे । समभाव आदि गुण, अकर्मण्यताके लिये नहीं किन्तु, अनन्तकर्मण्यताके लिये हैं ।