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पर-सुखमें निज-सुख
पर-सुखमें निज-सुख यद्यपि संयम, सुखके लिये आवश्यक है यह बात सिद्ध हो जाती है, फिर भी सामाजिक सुखकी वृद्धिका हिसाब कैसे लगाना चाहिये
और उसके लिये कौनसी नाति निश्चित करना चाहिये, इस बातपर विचार करना आवश्यक है । यहाँ मैं सुखके विषयमें कुछ नहीं कहता, क्योंकि वह स्वानुभवगम्य है । प्रश्न यह है कि किसका सुख यहाँ लिया जाय । साधारण दृष्टिसे तो यही कहना चाहिये कि प्रत्येक प्राणी अपने सुखके लिये प्रयत्न करता है। दूसरोंके सुखके लिए जो वह प्रयत्न करता है, वह इसीलिये कि दूसरोंका सुख अपने सुखको बढ़ानेमें या सुरक्षित रखनेमें सहायक है। माँ-बाप भी भविष्यकी आशासे संतानसे प्रेम करते हैं । परन्तु अगर इस प्रकारका हिसाब रक्खा जाय कि जिससे हमें सुखकी आशा हो उसे ही हम सुखी करनेकी चेष्टा करें, तो हमें दूसरोंसे बहुत कम सुख मिलेगा और दूसरोंको हमसे बहुत कम सुख मिलेगा । हम रास्तेमें जाते जाते किसी गड्ढे में गिर गये, उस समय हमें मनुष्य-मात्रसे सुखकी आशा करनी पड़ती है। प्रत्येक मनुष्यके जीवनमें ऐसे सैकड़ों प्रसंग आते हैं, जब उसे हरएक मनुष्यसे सहायताकी आवश्यकता होती है। अगर मनुष्य बिलकुल स्वार्थी हो जाय या ऐसे मनुष्योंके ही हितका विचार करे जिससे उसे प्रत्युपकारकी आशा है, तो मनुष्य-जाति शीघ्र ही नष्ट हो जायगी। अनुभवने यह बतलाया है कि केवल त्यागके नामपर ही नहीं बल्कि सुखके लिये मनुष्यको परोपकार करना चाहिये, इसमें मनुष्यकी