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जैनधर्म-मीमांसा
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स्वार्थसिद्धि है । इसके लिए एक कल्पना कीजिये कि दो मनुष्य ऐसे हैं जो एक दूसरेको सहायता नहीं पहुँचाते । प्रत्येक आदमी सालमें एक मास बीमार रहता है, इसलिये उनके ग्यारह महीने सुखमें और एक महीना दुःखमें बीतता है। परन्तु दुःख मनुष्यको इतना असह्य है कि ग्यारह महीनेका सुख एक महीनेके दुःखके आगे कम मालूम होता है । अगर हम ग्यारह महीनेके नीरोगता ( सुख ) के अंश (डिग्री) ग्यारह सौ कल्पित कर लें, तो एक महीनेके दुःखके ( ऐसी बीमारीके कि जिसमें कोई पानी देनेवाला भी नहीं है ) अंश हमें २२०० मानना पड़ेंगे । इस तरह इनमेंसे प्रत्येक मनुष्यके हिस्सेमें ११०० डिग्री सुख और २२०० डिग्री दुख पड़ेगा। इस तरह हिसाब करनेपर प्रत्येकके हिस्सेमें ११०० डिग्री दुःख ही रह जायगा। परन्तु दो ऐसे मनुष्य हैं जो एक दूसरेको पूर्ण सहायता पहुँचाते हैं। इस लिये जब उनमें कोई बीमार पड़ता है तब उसे सिर्फ रोगका ही कष्ट होता है । इन दोनों रोगियोंकी तुलना कीजिये । एक ऐसा है कि उसे न तो कोई पानी देनेवाला है, न औषध देनेवाला है, न उसे कोई खाने देता है । पेशाब आदि मल-त्याग वह बिस्तरमें या आसपास कर लेता है । एक महीनेतक सफाई भी कोई नहीं करता । इस रोगीमें और उस रोगीमें जिसको इन सब कष्टोंका सामना नहीं करना पड़ता, आकाश-पातालका अंतर है । उसका दुःख अगर २२०० डिग्री है, तो इसका सिर्फ २०० । इस तरह इनमेंसे प्रत्येकके हिस्सेमें ११०० डिग्री सुख और २०० डिग्री दुःख पड़ा । अगर अपने साथीकी परिचर्या करनेका कष्ट १०० अंश और जोड़ लिया जाय, तो इनका कष्ट ३०० डिग्री होगा।