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जैनधर्म-मीमांसा
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विस्तर्णि होगा, सुखका क्षेत्र भी विस्तीर्ण होगा, परप्राणिकृत दुःखको दूर करनेमें यह एक ऐसा उपाय है कि जिसमें किसी कल्पनाकी आवश्यकता नहीं है।
कर्तव्याकर्तव्यका निर्णय करनेके लिए वेदान्तने इसी उपायको स्वीकार किया है । वेदान्तके अनुसार मूलमें सारा जगत् एक है । जिसे इस एकत्वका दर्शन हो जाता है, उसकी दृष्टिमें स्वार्थ और परार्थका भेद ही नहीं रह जाता है । इसमें आपत्ति है तो इतनी ही है कि प्राणियोंके अनुभव जुदे जुदे होनेसे, तथा जड़ और चेतनमें सत्ता-सामान्यकी दृष्टिमें समता है, परन्तु वे दोनों एक ही तत्त्व नहीं हो सकते, इसलिए, संसार अनेक द्रव्यात्मक है । अनेकको एक माननेकी यह कल्पना बुद्धि-संगत नहीं है, इसलिए एकत्वके ऊपर विश्वास नहीं होता, तब उसको आधार बनाकर कर्तव्याकर्तव्यका निर्णय करना कैसे बन सकता है ? अगर हम यह समझ जायँ कि हमारा स्वार्थ परोपकारके बिना टिक ही नहीं सकता, तो भले ही दूसरे जीवोंमें और पदार्थोंमें हमसे व्यक्तिगत विभिन्नता हो, परन्तु हमें परोपकारको धर्म बनाना पड़ेगा और उसे स्वार्थका अंग मानना पड़ेगा। तात्पर्य यह है कि चाहे सब जड़-चेतन-संसारको एक मानो या जड़ और जीवको पृथक् पृथक्, परन्तु सुखी होनेके लिए परोपकारको स्वार्थके समान, परात्माओंको स्वात्माके समान महत्त्व देना पड़ेगा, परोपकारको हमें एक स्वभाव बना लेना पड़ेगा। परोपकारके क्षेत्रमें सिर्फ मनुष्योंका ही नहीं, किन्तु पशु-पक्षी, कीटपतंग तथा स्थावरोंका भी समावेश होगा । जिसने परोपकारको