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जैनधर्म-मीमांसा
कभी युद्ध करना ( हिंसा ) भी आवश्यक होता है । दानकी अधिक प्रवृत्ति से बेकारों की संख्या बढ़ने लगती है । कभी कभी दो धर्मोका पालन अशक्य होता है । अगर सत्य बोलते हैं तो हिंसा होती है; अगर हिंसाको बचाते हैं तो झूठ बोलना पड़ता है । इस अवसर पर क्या किया जाय ? कर्त्तव्याकर्त्तव्यका निर्णय कैसे किया जाय ?
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बहुत से लोग कर्त्तव्याकर्त्तव्य के निर्णय के लिये सदसद्विवेकबुद्धि या अन्तर्नाद के अनुसार कार्य करनेकी बात कहते हैं । परन्तु यह आवाज़ ठीक ठीक रूपमें महापुरुषोंको ही सुनाई देती है । परन्तु ऐसे मनुष्य इने-गिने होते हैं और कर्त्तव्याकर्त्तव्यके निर्णय करनेकी जरूरत तो सभीको होती है । दूसरी बात यह है कि अन्तर्नादके नामपर दंभकी सेवा होती है । पापीसे पापी - किन्तु बातें बनाने में चतुरव्यक्ति भी अन्तर्नादकी दुहाई देकर घोर दुष्कृत्य करते हैं, इसीलिये ऐसी कसौटी बनाना चाहिये जो तर्कपर कसी जा सके ।
दूसरी बात यह है कि अन्तर्नाद आकस्मिक नहीं है । कर्त्तव्याकर्त्तव्यके निर्णयके लिये हम जिन सिद्धान्तोंको जीवनमें उतारते हैं, आत्मामें जिनका अनुभव होता रहता है उन्हींके अनुसार हमें अन्तनाद सुनाई पड़ता है | जब उसका तात्कालिक कारण समझमें नहीं आता, तब वह अन्तर्नाद कहलाता है । सच पूछा जाय तो अन्तर्नाद एक ऐसा भीतरी तर्क है, जिसे हम शब्दों में उतारकर दूसरोंको नहीं समझा पाते । इसलिये अन्तर्नाद सुननेके लिये हमें उस सिद्धान्तको जानने की आवश्यकता हैं जिसके अनुसार चलनेपर हमें अन्तन सुनाई दे सके। इस सिद्धान्तके निर्णय किये बिना हम सदसद्विवेक-बुद्धिसे भी काम नहीं ले सकते ।