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जगत्कल्याणकी कसौटी
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उनके ऊपर भी समाजके द्वारा किये गये उपकारोंका थोड़ा बहुत बोझ रहता है। उसके बदले में वे समाजोद्धार करते हैं। यदि ऐसे लोग समाजोद्धार न करें, तो आगेके लिए उस संस्थाका मार्ग रुद्ध हो जायगा, जिससे लोग जीवन्मुक्त होते हैं । मतलब यह कि कृतघ्नताके परिहारके लिए जीवन्मुक्तोंको भी समाज-सेवा करनी चाहिये ।
(२) जीवन्मुक्त हो जानेपर भी मनुष्य, समाजाश्रयका त्याग नहीं करता, इसलिए वह अपनी वर्तमान आवश्यकता पूर्तिका बदला भी समाज-सेवाके द्वारा चुकाता है।
(३) जीवन्मुक्तमें राग-द्वेष आदि विकार नहीं रहते, परन्तु उनके मन-वचन-काय कुछ न कुछ कार्य करते हैं । इधर जीवन्मुक्तको किसी स्वार्थ-सिद्धिकी आवश्यकता नहीं है, इसलिए उसके मन-वचन-काय परोपकारके सिवाय और क्या कर सकते हैं ?
इस प्रकार चाहे जीवन्मुक्त हो, चाहे संसारी, सबको सुखवृद्धिके लिए प्रयत्न करना चाहिये । और यह खयाल रखना चाहिये कि अगर हम दूसरेको सुखी बनानेका प्रयत्न न करेंगे, तो हम सुखी नहीं हो सकते । परप्राणिकृत दुःखोंको दूर करनेके लिए हमें इसी उदार नीतिसे काम लेना आवश्यक है।
जगत्कल्याणकी कसौटी। यहाँ तक यह बात सिद्ध हो चुकी है कि जगत्के कल्याणमें हमारा कल्याण है । परन्तु जगत्के कल्याणका निर्णय कैसे किया जाय, यह एक महान् प्रश्न है । यह बात तो सभी लोग समझते हैं कि अहिंसा आदिसे जगत्का कल्याण है, दान आदि शुभ कार्य हैं, परन्तु कभी