________________
त्रिविध दुःख
त्रिविध दुःखः । प्रत्येक प्राणी संसारके विविध दुःखोंसे घबराया हुआ है । उसे सुखकी अपेक्षा दुःख कई गुणा भोगना पड़ता है । इस दुःखको हम तीन अंशोंमें विभक्त कर सकते हैं
(१) बाह्य प्रकृति और हमारे शरीरकी रचना ही कुछ ऐसी है कि वह दुःखके कारण जुटाती रहती है ।
(२) सामग्री कम है, भोगनेवाले ज्यादः हैं; और तृष्णा और भी ज्यादः है, इसलिये प्राणियों में परस्पर संघर्ष होता है जिससे अनेक तरहके अन्याय और अत्याचार होते हैं । इससे दुःख बढ़ जाते हैं ।
(३) मनुष्यको सुखी रहनेकी कलाका ज्ञान नहीं है, इसलिये उसे दुःखका अनुभव जितना होना चाहिये उससे अधिक होता है । ईर्ष्या आदिसे वह अनावश्यक दुःखोंकी सृष्टि करता है । ___ इन तीनों प्रकारके दुखोंको हम क्रमसे प्राकृतिक, परप्राणिकृत
और स्वकृत कह सकते हैं। ___ प्राणियोंका शरीर घृणित है, बहुत ही जल्दी इसमें रोग होते हैं, भोगोंसे यह कमजोर हो जाता है, अपने आप भी शिथिल हो जाता है और अन्तमें इच्छा न रहते हुए भी नष्ट हो जाता है। इधर प्रकृति भी हमारी इच्छाके अनुसार काम नहीं करती। हम चाहते हैं कि हवा चले, परन्तु हवा नहीं चलती । हम चाहते हैं कि ठण्डी हवा चले, तो गरम चलती है । इस प्रकार न तो प्रकृति हमारी इच्छाओंकी या हमारे शरीरकी आवश्यकताओंकी गुलाम है, न शरीर हमारी इच्छाओंके अनुसार काम करता है। इन दुःखोंसे बचनेके लिये परस्पर सहयोगसे एक दूसरेके दुःखोंको दूर करना तथा सहनशील