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जैनधर्म-मीमांसा
कालको पहिला आरा या सबसे अच्छा काल कहते हैं और कहते हैं कि उस समय कोई धर्म नहीं था । जैनशास्त्रोंके इस वर्णनका ऐतिहासिक मूल्य भले ही कुछ न हो; परन्तु उससे इतना तो मालूम होता है कि जैनधर्मके संस्थापक प्रवर्तक और सञ्चालक जिसे सबसे अच्छा काल कहते हैं, वह काल धर्मरहित था । जैनधर्मके अनुसार जब यह काल नष्ट हो गया, कष्ट बढ़े उसके बाद अनेक धर्म पैदा हुए । इससे यह बात सिद्ध होती है कि जब तक समाज में विषमता पैदा नहीं होती, समाज दुःखी नहीं होता, तब तक कोई धर्म पैदा नहीं होता । धर्मकी उत्पत्ति दुःखको दूर करनेके लिये ही हुई है । गीताके शब्दोंमें भी दुःखको दूर करनेके लिए ईश्वरका या धर्मका अवतार होता है । महात्मा बुद्धने संसारको दुःखसे छुड़ाने के लिए एक धर्मसंस्थाको जन्म दिया। महात्मा ईसा, महात्मा मुहम्मद आदि संसारके सभी धर्म-संस्थापकोंने दुःखी समाजके दुःखको दूर करनेके लिए धर्म-संस्थापना की है और अपना जीवन अर्पण किया है। धर्म सुखके लिए है, इस सर्वसम्मत बातको सिद्ध करनेके लिए अधिक प्रमाण देने की जरूरत ही नहीं है ।
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धर्मकी आवश्यकता क्यों हुई, जब हमें यह बात मालूम हो गई, तब धर्म क्या है, इसके समझने में विशेष कठिनाई नहीं रह जाती । उस समय धर्मका यह सीधा सादा लक्षण हमारे ध्यानमें आ जाता है कि जिस नीति या मार्गसे दुःख दूर हो सकता है उसे धर्म कहते हैं । इसलिये अगर हम धर्मको समझना चाहते हों, तो हमें जगत्के दुःखों और दुःखोंके दूर करनेके उपायको जान लेना चाहिये । इसके बाद धर्मकी मीमांसा करना कठिन नहीं है ।