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__जैनधर्म-मीमांसा
दूसरी बात यह है कि अपने धर्मका चाहे पुराना रूप हो, चाहे नया अर्थात् सुधरा हुआ रूप हो, वह अमुक परिस्थितिमें अमुक श्रेणीके लिये ही है । अपने धर्मको हमें सम्पूर्ण धर्म नहीं, परन्तु धर्मकी एक अवस्था या धर्मका एक अंश कहना चाहिए। जैनशास्त्रोंकी परिभाषामें अगर मैं धर्मको प्रमाण' कहूँ तो जुदे जुदे नामोंसे प्रचलित धर्मोको अर्थात् सम्प्रदायोंको नय कहूँगा । ' नय' प्रमाणका अंश है न कि पूरा प्रमाण; सम्प्रदाय धर्मका अंश है, न कि पूरा धर्म ।
किसी धर्मको सच्चा कहना या मिथ्या कहना, यह उसके स्वरूपपर नहीं किन्तु अपेक्षापर निर्भर है । नय, सच्चा नय तभी कहलाता है जब कि वह दूसरे नयका विरोध नहीं करता । दूसरे नयका विरोध करनेवाला नय मिथ्या नय या दुर्णय कहा जाता है। ___ इसी प्रकार सम्प्रदाय भी वही धर्म कहा जा सकता है, जो दूसरे सम्प्रदायका विरोध नहीं करता । अगर कोई सम्प्रदाय दूसरे सम्प्रदायका विरोध करता है, उसकी दृष्टिको गौण ही नहीं करता किन्तु नष्ट भी करता है, तो वह सम्प्रदाय मिथ्यात्व है, पाखण्ड है । ये सब जुदे जुदे, एक दूसरेके शत्रु बनकर खड़े होंगे, तो पाखण्ड कहलायँगे और मिल करके खड़े होंगे, तो सत्य कहलायँगे, धर्म कहलायेंगे।
धर्मोकी विविधताका रहस्य समझनेके लिये निम्नलिखित सूत्रोंका स्मरण रखना उपयोगी होगा
१-धर्म एक ही है और वह सुख-मार्ग है। २-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावके अनुसार उसके स्वरूप अनेक हैं । निरपेक्षाः नयाः मिथ्या सापेक्षाः वस्तु तेऽर्थकृत् ।
--समन्तभद्र