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धर्मका स्वरूप
शब्दोंकी रचना हुई है । कोई जैन-भूगोलका खंडन करके यह अभिमान करे कि मैंने जैनधर्मका खंडन कर दिया, तो वह भूलता है। किसी भी धर्मका खंडन तब कहा जा सकता है जब कि उस धर्मके द्वारा बतलाया हुआ आचरणीय मार्ग प्राणि-समाजको दुःखदायक साबित कर दिया जाय । दर्शन आदिका काम वस्तुके विषयमें विचार करना या निर्णय करना है, परन्तु धर्मशास्त्रका काम उस निर्णयको सुखोपयोगी बना देना है । धर्मका सुखसे साक्षात् सम्बन्ध है, जब कि दर्शन, ज्योतिष आदिका परम्परासम्बन्ध है । यही कारण है कि किसी अन्य शास्त्रके प्रवर्तककी अपेक्षा धर्मप्रवर्तकका स्थान ऊँचा है । इसलिये दर्शनोंमें परस्पर विरोध होनेसे हमें धर्ममें विरोध न समझना चाहिये ।
यहाँ एक तीसरी शंका पैदा होती है कि दर्शनको अगर हम धर्मशास्त्रसे जुदा भी कर दें, तो भी धर्मोमें परस्पर भिन्नता रह जाती है
और अगर हम उनमें सम-भाव रखने लगें, तो हमारे लिये यह निर्णय करना कठिन हो जायगा कि हम किस धर्मका पालन करें ।
इसके उत्तरमें संक्षेपमें मेरा कहना यही है कि आप किसी भी धर्मका पालन करें, परन्तु इन दो बातोंका खयाल रक्खें
प्रथम तो यह कि जब कोई धर्म पैदा होता है या नये. रूपमें दुनियाँके सामने आता है तब उसके सामने उस समयकी परिस्थिति रहती है, इसलिये उसका रूप उस परिस्थितिके अनुकूल होता है। कालान्तरमें वह परिस्थिति बदल सकती है । सम्भव है आज भी वह परिस्थिति बदली हुई हो । इसलिये परिस्थितिके प्रतिकूल तत्त्वोंको अलग करके हमें अपने धर्मको अर्थात् सम्प्रदायको सच्चा धर्म बना लेना चाहिये।