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जैनधर्म-मीमांसा
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सुलझानके लिये सभी धर्म एक दूसरेसे इतना अधिक विरुद्ध कथन करते हैं कि उन सबका समन्वय करना मुश्किल है। कोई द्वैत मानता है, कोई अद्वैत मानता है; कोई ईश्वर मानता है, कोई नहीं मानता । भला इन सब बातोंका कोई मेल कैसे कर सकता है ? और जब इनमेंसे किसी एक धर्मकी बात युक्ति आदिसे विरुद्ध सिद्ध होती हो, तब उस धर्मको असत्य समझते हुए भी सत्यके समान उसका आदर कैसे किया जा सकता है ?
निःसन्देह यह एक आवश्यक प्रश्न है; परन्तु इसका कारण है धर्मकी मर्यादाका भूल जाना । हमें यह समझ लेना चाहिये कि धर्म, धर्म है, वह दर्शन नहीं है, भौतिक विज्ञान नहीं है, गणित नहीं है, ज्योतिष नहीं है, इतिहास नहीं है, भूगोल नहीं है । धर्मशास्त्र इन सबका उपयोग करता है, परन्तु ये सब धर्मशास्त्र नहीं हैं। अर्थशास्त्रमें गणितका उपयोग होता है, परन्तु गणित अर्थशास्त्र नहीं कहलाता । काव्यमें व्याकरणका उपयोग होता है, परन्तु व्याकरण काव्य नहीं कहलाता । व्याख्यानके लिये व्याख्यान-भवनका उपयोग होता है, परन्तु व्याख्यान-भवन व्याख्यान नहीं कहलाता । इसी प्रकार धर्मके लिये दर्शनका उपयोग होता है, परन्तु दर्शन, धर्म नहीं कहला सकता । धर्म और दर्शन ये जुदे जुदे शास्त्र हैं। धर्मशास्त्रका काम है कि प्राणियोंको सुखी बननेका मार्ग बतलाये; जब कि दर्शनका काम है कि विश्वके रहस्यको प्रकट करे । ये सब शास्त्र धर्मशास्त्रके सहायक हैं । परन्तु आज तो हर एक विषय धर्मशास्त्रमें हँस दिया गया है, इसीलिये जैन-ज्योतिष, जैन-भूगोल, जैन-गणित, जैन-व्याकरण, आदि
3 Religion and Philosophy