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षयको पूरेपूरा लिखकर पीछे उसपर अपना विचार सुखसे लिखें, मगर शास्त्रोंके पाठोवाली सत्यरबातोके पृष्ठकेपृष्ठ छोड़कर कहींकहीकी अधूरी २ बातें लिखकर शास्त्रकार महाराजोके अभिप्राय वि. रुद्ध होकर संबंध बिनाके अधूरे २ पाठ लिखकरके कुयुक्तियोंसे स. त्य बातकोझूठी ठहरानेका व भोलेजीवोंको उन्मार्गमे गेरनेका उद्यम न करें. अन्यथा लेखकों में कितना न्याय व आत्मार्थीपनाहै, और स. म्यक्त्वका अंशभी कितनाहै, उसकी परीक्षा विवेकी विद्वानोंमें अ. च्छी तरहसे हो जावेगा, और उसको सभामें सिद्ध करके बतलानेको तैयार होना पडेगा. फिर शास्त्रार्थ करनेमें मुह नहीं छुपाना विशेष क्या लिखे।
४६- उत्सूत्र प्ररूपणाके विपाक ॥ शास्त्रार्थ करनेको सभामें आमने सामने आनामंजूरकरना नहीं, व अपनाझूठा आग्रह छोडकर सत्य बातग्रहणभी करना नहीं. और विषयांतरकरके कुयुक्तियों से शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणाकरते हुए दृष्टिरागी व भोले जीवोंको उन्मार्गमें गेरनेका उद्यम करते रहना. उससे दृष्टिरागी, पक्षपाती, अज्ञानी लोग चाहे जैसे पूजेगे,मानेगे, मगर "उ सूत्त भासगाणं बाहि णासो अणंत संसारो" इत्यादि, तथा“सम्मत्तं उच्छिदीय, मिच्छत्तारोवणं कुणई निय कुलस्स ॥ तेण सयलो वि वंसो, कुगई मुह समुहो नीओ॥१॥” इत्यादि, देखो-शास्त्रविरु. द्ध होकर उत्सूत्र प्ररूपणा करने वालेके बोधिबीज (सम्यक्त्व) का नाश होकर अनंत संसार बढता है, और जिसने अपने कुलमें, ग. णमें (गच्छमे),समुदायमें सम्यक्त्वका नाश करनेवाली मिथ्यात्वकी प्ररूपणाकी होवे, वो अपने सब वंशको, गच्छको, समुदायकोभी. दुर्गतिमें गेरनेवाला होताहै । शिवभूति-लुंका- लवजी-भीखम वगै. रह झूठे २ मत चलानेवालोंकी तरह इत्यादि भावको विचारो और संसारसे उदासीन भावधारण करनेवाले, आत्मार्थी, भव्यजीवोंकों उन्मार्गका रस्ता बतलानेवाला 'शरणे आनेवालोंका विश्वासघातसे शिरच्छेदन करनेवालेसेभी' अधिक दोषी ठहरता है, और यह याद रखने योग्य बात है, कि-दृष्टिराग, लोकप्जा, मानता, व झूठा आग्रहका अभिमान परभवमें साथ न चलेगा. मगर उत्सूत्रप्ररूपक ८४लाख जीवायोनीका घात करनेवाला होनेसे उसके विपाक अव. श्यही भवांतर भोगे बिना कभी नहीं छुटेंगे, इस बातपर खूब वि. चार करना चाहिये । और जिनामानुसार सत्यप्ररूपणा करके भव्य
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