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[ २०४ } जरा भी विचार न आया क्योंकि विवाहादि कार्य्य तो चौमासामें और रिक्तातिथिमें तथा कृष्ण चतुर्दशी अमावस्यादि तिथि वगैरह कु वार कु नक्षत्र कु योगादि अनेक कारण योगों में निषेध किये हैं और श्रीपर्युषणादि धर्मकार्य तो विशेष करके चौमासामें रिक्तातिथिमें तथा कृष्ण चतुर्दशी अमावस्यादि तिथियों में कु वार कु नक्षत्र कु योगादि होते भी तिथि नियत पर्व करने में आते हैं इस बातका विवेक बुद्धिसें हृदयमें विचार किया होता तो विवाहादि कार्यों का दृष्टान्तसे महान् उत्तम पर्युषणा पर्व करनेका निषेध के लिये कदापि लेखनी नही चलाते यह बातपाठकवर्गको अच्छी तरहसे विचारनी चाहिये ;---
और भी आठमी तरहसे सुन लीजिये-कि पूर्वोक्त तीनों महाशयोंने और चौथे न्यायांभोनिधिजीने भोले जीवों के आत्मसाधनका धर्मकायों में विघ्नकारक, अधिक मासको तुच्छ नपुंसकादिसे लिखा है सो निःकेवल श्रीतीर्थकर गणधरादि महाराजोंके विरुद्ध उत्सूत्र भाषणरूप प्रत्यक्ष मिथ्या है क्योंकि धर्मकार्यों में अधिक मास उत्तम श्रेष्ठ महान् पुरुषरूप है ( इसलिये अधिक मासमें धर्मकायौंका निषेध नही हो सकता है) इस बातका विशेष विस्तार दृष्टान्त सहित युक्तिके साथ अच्छी तरहसे सातमें महाशय श्रीधर्मविजयजीके नामकी समीक्षा करने में आवेगा सो पढ़नेसे सर्व निःसन्देह हो जावेगा ;
और आगे फिर भी न्यायांभोनिधिजीने अधिक माम को निषेध करनेके लिये जैन सिद्धान्तसमाचारीकी पुस्तकके पृष्ठ ९२ की पंक्ति १७ सै पृष्ठ ३ की आदिमें अई पंक्ति तक
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