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[ ३८३ ] मासको गिनतीमें ले करकेही पर्युषणा करने का कहा है तथापि सातवें महाशयजी पर्युषणा सम्बन्धी श्रीजैनशास्त्र के तात्पर्य्यको समझे बिना अज्ञात पनेसै उत्सूत्र भाषक हो करके अधिक मासका निषेध करनेके लिये गच्छपक्षी बालजीवोंको मिथ्यात्व में फंसाने वाली अनेक कुतकों का संग्रह करते भी अपने मंतव्यको सिद्ध न कर सके तब लौकिक व्यवहारका सरणा लिया तथापि लौकिक व्यवहारसैं भी उलटे वर्तते हैं क्योंकि लौकिक जन (वैष्णवादि लोग) तो अधिक माप्समें विवाहादि संसारिक कार्य छोड़कर संपूर्ण अधिक माप्तको बारहमासोंसे विशेष उत्तम जान करके 'पुरुषोत्तम अधिक मास' नाम रख्खके दान पुण्यादि धर्मकार्य्य विशेष करते हैं और अधिक मासके महात्मकी कथा अपने अपने घर घरमें ब्राह्मणोंसे वंचाकर सुनते हैं। अब पाठकवर्गको विचार करना चाहिये कि-लौकिकजन भी जैसे बारह मासोंमें संसारिक व्यवहारमें वर्तते हैं तैसेही अधिक मास होनेसे तेरह मासों में भी वर्तते हैं और बारह मासोंसे भी विशेष करके दानपुण्यादि धर्मकार्य अधिक मासमें ज्यादा करते हैं और विवाहादि मुहूर्त निमित्तिक कार्य नहीं करते हैं परन्तु बिना मुहूर्त के धर्मकायाकों तो नही छोड़ते हैं और सातवें महाशयजी लौकिक जनकी बातें लिखते हैं परन्तु लौकिक जनसें विरुद्ध हो करके धर्मकाया में अधिक मासके गिनती का सर्वथा निषेध करते कुछ भी विवेक बुद्धिसैं हृदयमें विचार नहीं करते है क्योंकि लौकिक जन की बात सातवें महाशयजी लिखते हैं तबतो लौकिकजन की तरहही सातवें महाशयजीको भी वर्ताव करना चाहिये सो तो नही करते
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