Book Title: Bruhat Paryushananirnay
Author(s): Manisagar Maharaj
Publisher: Jain Sangh

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Page 553
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४२९ ] के लिये और सत्य बातांका निषेध करनेके लिये नवीनवी कुयुक्तियों के विकल्प खड़े करके विशेष मिध्यात्व फैलावेगा और दूसरे भोले जीवों को भी उसीमें फंसावेगा सोतो उसीकेही निवड़ कर्मो का उदय समझना परन्तु उसीमें शास्त्र कारका कोई दोष नहीं है इसलिये यहां मेरा खुलासा पूर्वक यही कहना है कि अधिकमासको गिनती निषेध करनेवाले और गिनतीप्रमाण करनेवालोंको अनेक कुयुक्तियां कल्पित दूषण लगानेवाले सातवें महाशयजी जैसे विद्वान कहलाते भी निःकेवल अन्ध परम्पराके कदाग्रह में पड़के बालजीवों को भी उसी में फंसानेके लिये अभिनिवेशिक मिथ्यात्वको सेवन करके श्रीतीर्थंकर गणधरादि महाराजोंकी और अपने पूर्वजोंकी आशातना करते हुवे पञ्चांगी के प्रत्यक्ष प्रमाणोंको छोड़कर फिर शास्त्रकार महाराजोंके विरुद्धार्थमें उत्सूत्र भाषणों करके खूब पाखन्ड फैलायाहे और फैला रहे हैं जिससे श्रीतीर्थंकर महाराजकी आशाको सत्थापन करते हैं इसलिये अधिक मासको गिनती निषेध करनेवाले कदाग्राहियों को मिथ्यादृष्टि निन्हवाकी गिनती में गिनने चाहिये । यदि श्रीतीर्थंकर महाराजकी आज्ञाको अराधन करके आत्म कल्याणकी इच्छा होवे तो अधिक मासके निषेध करने सम्बन्धी कार्योंका मिथ्या दुष्कृत देकर उसीकी गिनती के प्रमाण मुजब वर्तों नहीं तो उत्सूत्र भाषणोंके विपाकता भोगे बिना छूटने मुशकिल है; -- और फिरभी स्वपरम्परा पालने सम्बन्धी सातवें महाशयजी ने लिखा है कि ( स्वमंतव्यमे विरोध म आवे ऐसा बर्ताव करना बुद्धिमान पुरुषोंका काम है) इस डेलपर For Private And Personal

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