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[ ४४१ ]
पंचमीको ज्ञात पर्युषणा वार्षिक कृत्यादिपूर्वक करने में आती थी, उसीको वर्षाकालको स्थितिरूप गृहस्थी लोगों के आगे कहने मात्रही वार्षिककृत्योंरहित ठहरानेके लिये और अभि वर्द्धितभी ५० दिने भाद्रपदमें वार्षिक कृत्यों सहित पर्युष जाको ठहरानेकेलिये चूर्णिकारादि महाराओं के अभिप्रायको समझे बिनाही उलटा विरुद्धार्थमें और अधिक मास संबंधी पूर्वापरको सब व्याख्याके पाठोंको छोड़करके अधिकरण दोषोके तथा उपद्रवादिके संबंध वालेअधूरेपाठ लिखके फिर चंद्रसम्बत्सर में ५० दिन की तरह अभिवर्द्धितसंबत्सर में २० दिने ज्ञात पर्युषणा दिखा करके ५० दिनको ज्ञात पर्युषणा में ता वार्षिक कृत्य करनेको सिद्ध करते हैं परंतु २० दिनको ज्ञात पर्युषणाको अपनी मतिकल्पना से गृहस्थी लोगोंके आगे वर्षास्थितिरूप ठहराकर वार्षिक कृत्योंको निषेध करते हैं से कदापि नहीं हो सकता है क्योंकि ५० दिनको ज्ञात पर्युaणा वार्षिक कृत्योंकी तरह २० दिनको ज्ञात पर्युषणा में झी वार्षिक कृत्य शास्त्रानुसार तथा युक्तिपूर्वक स्वयं सिद्ध है इसका सविस्तार निर्णय तीनों महाशयोंके लेखोंकी समीक्षा में इसी ग्रन्थ के पृष्ठ १०७ से ११७ तक अच्छी तरह से रूपगया है इस लिये जो श्रीकुलमंडन सूरिजीने २० दिनको पर्युषणाको वार्षिक कृत्यों रहित ठहरानेके लिये मास वृद्धि के अभाव संबंधी पाठोंको मास वृद्धिहोती भी अधूरे अधूरे लिखके वाल जीवोंको दिखायेहै सेा आत्मार्थिपनेका लक्षण नहींहै । सातो न्यायदृष्टिवाले सज्जन स्वयं विचार लेखेंगे ।
और अभिवर्द्धितमें वोश दिने ज्ञात पर्युषणा वार्षिक कृत्यों पूर्वक करनेसे । प्रथम चौथे वर्षे ११ । ११ मासे तथा
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