Book Title: Bruhat Paryushananirnay
Author(s): Manisagar Maharaj
Publisher: Jain Sangh

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Page 557
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४२५ ] सब लेखाँको शास्त्रानुमार युक्ति पूर्बक सिद्धकर दिखावो नहीं दिखाओ तो उसीकी आलोचना लेकर सत्य बातोंको ग्रहण करो और अपने सब लेखांको शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक सिद्ध नहीं करोंगे तथा अपनी भूलोंकी आलोचना भी नहीं लेवोंगे औरसत्य बातोंको ग्रहण भी नहीं करोंगे तबतक मैंरे लेखकी समालोचना करनेकी आपमें योग्यता प्राप्त नहीं हो सकेगी तथापि आप केवल अपनी विद्वत्ताकी शर्म-केमारे, लौकिक लज्जासे अपनी उत्सूत्र भाषणोंकी तथा प्रत्यक्ष मिथ्या (पर्युषणा विचारके) लेखांकी भूलोंको छुपा करके शास्त्रा. नुसार युक्ति पूर्वक सत्य बातोंके सम्बन्धका सब लेसको छोड़ करके बिना सम्बन्धका अधूरा लेखकी कुयुक्तियों के बिकल्पों से समालोचना करके शास्त्र मर्यादा पूर्वकके बहाने मुग्ध जीवोंको मिथ्यात्वमें फंसाने के लिये पर्युषणा विचार के लेखकी तरह फिर भी उद्यम करोंगे तो उसीके भी सबकी ममालोचना करके आपके अन्यायके पाषण्डको शांत करनेके लिये मैंरेको जलदीसे लेखनी चलानी ही पड़ेगी इसमें फरक नहीं समझना ;___और पर्युषणा विचारके दशवें पृष्टकी १९ वीं पलिसे दशवे पृष्टके अन्त तक लिखा है कि ( पाठक महाशयोंको पक्षपात शून्य होकर निबन्ध देखने की सूचना दी जाती है स्नेहरागके वस होकर अमत्यको सत्य नहीं मानना और गतानुगतिक नहीं बनना तत्त्वान्वेषी बनकर जल्दी पद्ध व्यवहारको स्वीकार करके भगवान्की आज्ञानुसार भाद्र सुदी चौथ के दिन मांवत्सरिक वगैरह पांच कृत्योंका आरा. धनकरके थोड़ेभवमें पञ्चमज्ञानके भागीबनो इसतरह ५४ For Private And Personal

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