Book Title: Bruhat Paryushananirnay
Author(s): Manisagar Maharaj
Publisher: Jain Sangh

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Page 573
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( ४४१ ) यश्चाधिक मासको जनशाने पौषाषाढस्पः लौकिक शास्त्रघु चैत्राद्यश्विनमासांत सप्तमासव्यवस्थित मासरूपोऽभिवद्धित नासौक्य चित्कृत्येप्रयुज्यते । यदुक्त रत्नकोशाख्य ज्योतिष - शास्त्र । यात्राविवाहमंडनमन्यान्यपि शोभनानि कर्माणि परिहर्तध्यानिबुधैः सर्वाणिनपुंसकेमासि ॥ जति अहिमासओ पडितो तो वीसतीरायं गिहिणायं न कज्जति किं कारणं अथ अहिमासओ चेव मासे गणिज्जति तोवीसाएसमं सवीसति रातो मासोभमतिचेव इति वृहत्कल्प चू० पत्र २९५ उ०३ । पुनः। जम्हा अभिचढ्ढिय वरिसे गिम्हचेवसोमासो अक्वन्तो तम्हावीस दिणा अणभिग्गहियंकीरइ निशी० चू०३० १० पत्र ३१७ इहकल्प निशीथ चर्णिक्रदभ्यामपिस्वाभिगृहीतगृहस्थ जातावस्थान व्यतिरिक्ततेषु कार्येषु क्वाप्यधिकमासको नामग्रहणं प्रमाणीकृतो न दृश्यते इति ।। अब श्रीकुलमंडनमूरिजी कृत उपरके लेखको देखकर मेरेको बडेही अफसोसके साथ लिखना पड़ता है कि-ऐसे सुप्रसिद्धविद्वान् पुरुष आचार्यपदकेधारक होकरके भी स्वगच्छा ग्रहका पक्षपात करके उत्सूत्र भाषणोंसे संसारवृद्धिकामय न करते हुवे कुयुक्तियोंकासंग्रहसे बालजीवोंको मिथ्यात्वके भ्रममें गेरनेका उद्यम किया है से श्रीअनन्त तीर्थंकर गणधरादि महाराजोंके वचनका उत्थापनरूप है क्योंकि पांच वर्षों के एकयुगमें तीसरे तथा पांचवे वर्ष जो पौष तथा आषाढको अधिकमास जैनशास्त्रोंमकहाहै उसीकाही मंदिरोंके शिखर वत् तथा मेरुचूलिकावत् और दशवकालिकजो आचारांगजी की चलिकावत् कालचलाको उत्तम श्रेष्ठ ओपमा देकर दिनोंमें पक्षों में मासोंमें गिनती करके वर्ष तथा युगादि For Private And Personal

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