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का धर्मलाभ पाठकवर्गके प्रति लेखकदेताहै ) इस रीतिसे सातवें महाशयजीने पर्युषणाविचारके लेखको पूर्ण किया है। अब ऊपरके लेखकी समीक्षा करते हैं कि-गच्छके पक्षपातको स्न हरागसे असत्यको सत्यमान करके गतानुगतिक गहुरीह प्रवाहवत् अन्य परम्पराकोही मानने वाले मिथ्या दृष्टि कहे जाते हैं इसलिये तस्वान्वेषी बन करके शास्त्रानुसार युक्ति सम्मत सत्य बातोंका निर्णयपूर्वक ग्रहण करना सोआत्मार्थियोंका काम है इसलिये पक्षपात रहित पर्यषणा विचारके निबन्धको पढ़ा तो साफ मालूम हुआ कि पर्युषणा विचारके लेखकने अपनी अज्ञानताके कारणसे अपने गच्छका पक्षपात करके अन्ध परम्पराका मिथ्यात्वको बढ़ाने के लिये पं० हर्षभूषणजीकी धर्मसागरजीकी और विनयविजयजी वगैरहोंकी, उत्सूत्र भाषणोंकी कल्पनायोंको सत्य मानकर श्रीतीर्थंकर गणधरादि महाराजांकी आज्ञाको उत्थापन करके पर्युषणा विचारके लेख में केवल शास्त्रोंके विरुद्ध उत्सूत्र भाषणोंकी कल्पनायें भरी हुई होनेसे गच्छ पक्षके मिथ्या आग्रह करनेवाले बालजीवोंको श्रीजिनाज्ञासे भ्रष्टकरके मिथ्या त्वमें फंसाने वाला और खास पर्युषणा विचारके लेखकको संसार वृद्धिका हेतु भूत प्रत्यक्ष देखने में आया इसलिये पर्युषणा विचारके लेखकके तथा अन्य आत्मार्थियोंके उपकारके लिये उसीकी समालोचना करके निष्पक्षपाती पाठक गणको सत्यबात दिखाई है सो इसको पढ़कर पर्युषणा वि. चारके लेखक वगैरह यदि आत्मार्थि होवेंगे तब तो गच्छके पक्षपातका आग्रहको न रक्षके असत्यको छोड़कर सत्यको ग्रहण करके अपनी भूलोको सुधारेंगे और अपनी विद्वत्ताके
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