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[ ४०४ 1 ___ और श्रीचन्द्रप्रज्ञप्ति, श्रीसर्यप्रज्ञप्ति, श्रीजंब द्वीप प्र. अप्ति और श्रीज्योतिषकरंडपयन्न वगैरह शास्त्रानुसार तथा उन्होकी व्याख्यायों के अनुसार अधिक मास होने का कारण कार्य तथा गिनतीका प्रमाणको जो सातवें महाशयजी किसी सद्गुरुसे पढ़के तात्पर्यार्थ को समझते और श्री भगवतीजी श्रीअनुयोगद्वार वगैरह शास्त्रानुसार समय, आवलिकादि कालकी व्याख्याको विचारते तो अधिक मासकी गिनती निषेध कदापि नहीं करते और दो श्रावणं दो भाद्र, दो आश्विन वगैरह नहीं होनेका लिखने के लिये लेखनी भी नहीं चलाते से पाठक वर्ग विचार लेबेंगे :__और भी आगे पर्युषणा विचार के सातवें पृष्ठ में लिखा है कि (लौकिक पञ्चाङ्गानुसार अधिक मासको लेखामें गिनने वाले महाशयोंसे पूछता हूं कि यदि आश्विन दो होंगे तो साम्वत्सरिक प्रतिक्रमणान्तर सत्तरवें दिनमें चौमासी प्रतिक्रमण करोगे कि नहीं, यदि नहीं करोगे तो समवायाङ्ग सत्रके पाठकी क्या गति होगी ? अगर चौभासीका प्रतिक्रमण करोगे तो दूसरे आश्विन सुदी पूर्णमासीके पीछे विहार करना पडेगा। आश्विन मासको लेखामें न गिनकर सत्तर दिन कायम रक्खोगे तो श्रावण अथवा भाद्रमासको लेखामें में गिनकर पचास दिन कायम रख कर भगवान्की आज्ञाके अनुसार भाद्र सुंदी चौथ के रोज साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण क्यों नहीं करते )
इस लेख पर भी मेरेको इतनाही कहना है कि जैन पञ्चाङ्गके अभावसे लौकिक पञ्चाङ्गानुसार वर्ताव करनेको पूर्वाचार्यो की आज्ञा है इसलिये कालानुसार श्रीजैन
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