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[ ४११ 1 पर भवका और विद्वानोंके आगे अपने नामकी हासी करानेका कुछ भी पूर्वापरका विचार न किया, अन्यथा अन्ध परम्पराके मिथ्यात्वको पुष्टीकारक शास्त्रकार महा. राजोंके विरुद्धार्थमें ऐसे अधूरे पाठ लिखके और कुयुक्तियोंका संग्रह करके बाल जीवोंको सत्य बात परसे श्रद्धा भ्रष्ट करने के लिये कदापि परिश्रम नहीं करते, सो तो निष्पक्षपाती सज्जनोंको विचार करना चाहिये
और “जय दो श्रावण आवे तो प्रावण सुदी चौपके रोज सांवत्सरिक कृत्य करे ऐसा तो पाठ कोई सिद्धान्तमें नहीं है तो क्या आग्रह करना ठीक है" यह भी सातवें महाशयजीका लिखना गच्छ पक्षी बाल जीवोंको मिथ्यात्वके भ्रममें गेरने के लिये अज्ञताका अथवा अभिनिवेशिक मिथ्यात्वका सूचक है क्योंकि दो श्रावण होते मी भाद्रपदमें पर्युषणा करना ऐसा तो किसी भी शास्त्र में नहीं लिखा है तो फिर दो प्रावण होते भी भाद्रपद में पर्युषणा करनेका था क्यों पुकारते है और दो श्रावण होनेसे दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करना सो तो श्रीकल्पसूत्रके मूलपाठानुसार तथा उन्हीं की अनेक व्याख्यायोंके अनुसार और युक्तिपूर्वक स्वयं सिद्ध है सो तो इसी ग्रन्थकी आदिमेंही विस्तारसे लिखने में भाया है और खास सातवें महाशयजी भी श्रीकल्पसूत्रके मूलपाठको तथा उसी की मृत्तिको हर वर्षे पर्युषणामें वांचते हैं उसीमें जैन पञ्चाङ्गके अभावसे "जैनटिप्पनकानुसारेण यतस्तत्र युगमध्ये पौषो युगान्ते च आषाढ एव बटुंते नान्येमामास्तहि. प्पनकंतु अधुना सम्यग न ज्ञायतेन्तः पञ्चाशद् भिर्दिमैः पर्युपणा सङ्गते-युक्तेति बद्धाः-" ऐसे अक्षर किरणावली वृत्तिमें
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