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को मिथ्यात्व में फँसानेका उद्यम किया है सो निःकेवल उत्सूत्र भाषण रूप होने से संसार बृद्धिका हेतुभूत है सो विवेकी तत्त्वज्ञ पुरुष अपनी बुद्धिसे स्वयं विचार लेवेंगे ;
और फिर भी श्री आवश्यक निर्युक्लिकी गाथा की बातपर सातवें महाशयजीने अपनी चातुराई भोले जीवोंको दिखाई है कि ( कुशाग्र बुद्धि आज्ञा निबद्ध हृदय आचायने अधिक मासको गिनती में नहीं लिया है उसी तरह तुम्हे भी लेखामें नहीं लेना चाहिये जिससे पूर्वोक्त अनेक दोषोंसे मुक्त होकर आज्ञाके आराधक बनोगे )
सातवें महाशयजीका यहभी लिखना अपनी विद्वत्ताके अजीर्णतासे संसार वृद्धिका हेतु भूत उत्सूत्र भाषण है क्योंकि निर्युक्लिकी गाथामें तो अकिध नसकी गिनती निषेध करने वाला एक भी शब्द नहीं है परन्तु श्री अनन्त तीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि महाराजोंने अनन्ते कालसे अधिक मासको गिनती में लिया है इस लिये तत्त्वच बुद्धिवाले श्रीजिनेश्वर भगवान्की आज्ञा के आराधक जितने आत्मार्थी उत्तमाचार्य हुवे है उन सबी महानु भावोंने अधिक मासको गिनती में लिया है और आगे भी लेबेंगे इसलिये इसकलियुग में जो जो अधिक मासको गिनती में लेनेका निषेध करनेवाले हो गये हैं तथा वर्त्त मान में सातवें महाशयजी वगैरह है सो सबीहो पञ्चाङ्गीकी श्रद्धा रहित श्रीजिनाज्ञाके उत्थापक है क्योंकि अधिक मासको गिनती में करने सम्बन्धी २२ शास्त्रोंके प्रमाणतो इसीही ग्रन्थ के पृष्ठ २७/२८ में छप गये हैं और श्रीभगवतीजीमें २३, तथा तद्वृत्तिमें २४, श्रीअनुयोगद्वार में २५, तथा
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