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[ २९२ ] श्रीनिशीथचूर्णि,श्रीवृहत्कल्पचूर्णिके, पाठ खुलासापूर्वक छप गये हैं सोही पंचकपरिहानीका कल्प, और कल्प स्थापना याने योग्य क्षेत्रके अभावसे पांच पांच दिनकी वृद्धिसे अज्ञातपर्युषणा स्थापन करे उसी रात्रिको वहां श्रीकल्पसूत्र के पठन करनेका कल्प, यह तीनों बाते वीर संम्वत् १९३ (विक्रम संम्वत् ५२३ ) में श्रीसंघकी आज्ञासै विच्छेद हुई। तब चन्द्रसंवत्सरमें और अभिवर्द्धितसंवत्सरमें भी आषाढ़ चौमासीसें ५० दिने पर्युषणा करनेके कल्पकी मर्यादा रही तथा पचासवें दिनही श्रीकल्पसूत्रके पठन करने के कल्पकी मर्यादा भी रही और उसी वर्षे श्रीमान् परम उपगारी श्रीदेवढुिंगणिक्षमाश्रमणजी महाराज श्रीजैनशास्त्रोंको पुस्तका रूढमें किये उसी समय श्रीदशाश्रुतस्कन्धसूत्रके आठमें अध्ययनको लिखती बख्त, जिन चरित्र तथा स्थिरावली और साधुसमाचारीका संग्रह करके अष्टम अध्ययनको संपूर्ण किया तब पांच पांच दिनको वृद्धिसें अभिवर्द्धित सम्वत्सरमें चार पञ्चक वीश दिनका तथा चन्द्रसम्वत्सरमें दशपञ्चकका ( कल्प) व्यवहारको न लिखा और चन्द्रसं० अभिवर्द्धितसं० इन दोनुसम्वत्सरों में५० दिनका एकही नियम होनेसे पचास दिनेही प्रसिद्ध पर्युषणा करनेका नियम दिखाया है यह श्रीदशाश्रुतस्कन्धसूत्रका अष्टमाध्ययन श्रीकल्पसूत्रजीके नामसे जदा भी प्रसिद्ध है उसी श्रीकल्पसूत्रका पर्युषणा सम्बन्धी पाठ भावार्थ सहित इन्ही ग्रन्थकी आदिमें पृष्ठ ४।६ तक छप चुका है सोही पाठार्थ सूर्य्यकी तरह प्रकाश करता है कि इस वर्तमानकालमें आपाढ़ चौमामीसे पचास दिन जहां पूरे होवे वहांही पर्यु
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