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[ ३२२ ] अपने घरसैं सामायिक करके पौषधशालामें गुरुमहाराजके पास प्रतिक्रमण करनेके लिये आवे वहां इरियावही पूर्वक षड़ावश्यकरूप प्रतिक्रमण करनेके सम्बन्ध में पाठ है जिसका सम्बन्ध छोड़कर ग्रन्थकार महाराजको भी विसंवादके दूषित ठहरानेके लिये उलट पुलट अधूरा पाठ, न्यायां० ने 'जैन० मा० पुस्तकके' पृष्ठ ३४ के आदिमें लिखके ग्रन्थकार महाराजकेविरुद्धार्थमें सामायिकमें प्रथम इरियावही स्थापनकरी सो भी उत्सूत्र भाषणरूप है इसका निर्णय, 'आत्मके' पृष्ठ ७७ से ८३ तक छपगया है। ___ सातमा-श्रीयशोदेवसरिजी कृत श्रीपञ्चाशकजीकी चूर्णिमें सामायिक विधिके विषे प्रथम करेमिझतेका उच्चारण किये बाद पीछेसें इरियावहीका प्रतिक्रमण करना खुलासे लिखा है उसी पाठको तो छुपा दिया और पौषधविधि सम्बन्धी पाठको न्याने 'जैन ना० पु० के' पृष्ठ ३४ के अन्तमें लिखके चूर्णिकार महाराजको विसंवादीका दूषण लगाके उन्ही महाराजके विरुद्धार्थमें सामायिककी विधिमें प्रथम इरियावही स्थापन करी सो भी उत्सूत्र भाषण है इसका भी निर्णय 'आत्म० के' पृष्ठ ८४८८६ में छपगया है। ___ ८ आठमा-श्री पूर्वाचार्यजी कृत श्रीविवाहचूलिया सूत्र में सिंहनामा श्रावकने इरियावही पूर्वक चार प्रकारका पौषधकरा उसी सम्बन्धी खुलासे पाठ है तथापि न्यायांभोनिधिजीने पौषध सम्बन्धी पाठको तोड़ करके अधूरा याठ 'जैन ना० पु० के' पृष्ठ ३५ की आदिमें लिखके सूत्रकार महाराजके विरुद्धार्थ में सामायिकमें प्रथम इरियावही स्थापन करी सो भी उत्सूत्र भाषण है इसका निर्णय 'आत्म०' के पृष्ठ साल तक छपगया है।
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